उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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शहंशाह मेवाड़-विजय करने स्वयं सेना के साथ गया हुआ था। इस मुहिम में वह अपने साथ किसी भी हिन्दू को तथा राजपूत सेना को नहीं ले गया था। मेवाड़-विजय के लिए शहंशाह दो मास का समय पर्याप्त समझता था। परन्तु उसे आगरा से छः मास से ऊपर हो चुके थे। आश्विन में उसने आगरा छोड़ा था और अब फाल्गुन आ गया था। अभी सेनाओं का आमना-सामना नहीं हो पाया था। छुटपुट झड़पें नित्य होती रहती थीं।
पण्डित विभूतिचरण को भी आगरे से बुलावा आये छः मास से ऊपर हो चुके थे। वह भटियारिन की सरायवाले मन्दिर के विषय में जानने के लिए अधिक उत्सुक था। इस पर भी वह बिना बुलाए गाँव से बाहर जाना नहीं चाहता था। आगरा से आनेवाले लोग बता रहे थे कि मारवाड़ में मुगल सेना को सफलता नहीं मिल रही।
पड़ोसी लाला श्यामबिहारी प्रायः आगरा जाया करता था। उसका लड़का विपिनबिहारी का विवाह वहीं हुआ था। उसकी पत्नी का गौना अभी नहीं हुआ था। इससे लड़के का वहाँ आना-जाना होता रहता था। इस बार श्यामबिहारी पुत्रवधू के गौने के विषय में निश्चय करने वहाँ गया था और बात निश्चित कर आया था। अतः वह पण्डित विभूतिचरण को बताने आया था। पण्डित अपनी बैठक में बैठा अपने बड़े लड़के रामचरण से उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ रहा था। इसी समय श्यामबिहारी वहाँ आ पहुँचा।
‘‘आइए लाला जी! कई दिन के उपरान्त दर्शन हुए हैं।’’ पण्डित जी ने लाला जी को बैठने का संकेत कर कहा।
‘‘मैं आगरा गया हुआ था।’’ श्यामबिहारी ने बैठते ही बात आरम्भ कर दी।
‘‘क्या समाचार है वहाँ का?’’
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