उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘शहंशाह मेवाड़ में ही हैं। सुना है कि वहाँ छुटपुट युद्ध हो रहा है। उन युद्धों के कारण शाही सेना अभी चित्तौड़ तक नहीं पहुँच पा रही है।’’
‘‘इस पर भी चित्तौड़ विजय होगा।’’
‘‘लोग कहते हैं कि वह अजेय है।’’
‘‘मेरी विद्या और बुद्धि यही कहती है कि राणा को मेवाड़ का बहुत-सा क्षेत्र खाली करना पड़ेगा। राणा के एक सेनाध्यक्ष और मन्त्री जयपुर वालों को कटु शब्द कहे थे और जयपुर वाले उन शब्दों का बदला लेने के लिए तड़प रहे हैं।’’
‘‘क्या कटु शब्द कहे थे?’’ लाला ने पूछ लिया।
‘‘यही कि जयपुर वालों ने अपनी लड़की एक विधर्मी को दे दी है।’’
‘‘पण्डित जी! यह सत्य भी तो है।’’
‘‘परन्तु निन्दनीय नहीं। इसमें निन्दनीय कुछ और है।’’
‘‘वह क्या है?’’
‘‘यही कि हिन्दू समाज में अपने से बाहरवालों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति नहीं रही। लड़की दी है। यह इसी कारण निन्दनीय हो गया है कि हिन्दू समाज में लड़की महारानी जितनी सुन्दर होते हुए भी शहंशाह को हिन्दू नहीं बना सकी।’’
‘‘यह कैसे हो सकता था?’’ लाला पण्डित की बात को समझ नहीं सका। पण्डित इसका कारण जानता था और उसने बताया, ‘‘देखिए लाला जी! मैं एक लड़की के विषय में जानता हूँ जो एक हिन्दू औरत की एक मुसलमान से सन्तान थी। औरत को तो असती समझ हिन्दू परिवार से निकाल दिया गया और वह इसी शोक में लड़की को जन्म देकर मर गई। लड़की की एक हिन्दू ने यह समझ पालना की थी कि वह एक हिन्दू की लड़की है। लड़की सज्ञान हुई और उसका विवाह एक हिन्दू युवक से हुआ तो पता चला कि वह मुसलमान पिता की सन्तान है।’’
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