उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मैंने विपिनबिहारी से पूछा और वह मान गया है कि वह जब भी वहाँ जाता था, पत्नी के कमरे में सोता था और उसने ही उसे गर्भवती किया है।’’
‘‘तब ठीक है। उसे ले आओ।’’
‘‘परन्तु विपिन की माँ नहीं मानती। वह कहती है कि लड़की छिनार है। उसे वह घर में लाकर नहीं रखेगी।’’
विभूतिचरण मुख देखता रह गया। बात श्यामबिहारी ने ही कही। उसने कहा, ‘‘मुझे लड़की निर्दोष प्रतीत होती है।’’
‘‘क्या वयस् है उसकी?’’ पण्डित जी ने पूछ लिया।
‘‘पन्द्रह वर्ष की है।’’
‘‘उसका गौना हो जाना चाहिए था। उसके माता-पिता ने अभी तक गौना न देकर भूल की है और फिर लड़के को पत्नी से अपने घर में ही मिलने का अवसर देकर ठीक नहीं किया। परन्तु लड़की का इसमें क्या दोष है?’’
‘‘यही मैं विपिन की माँ को समझाता हूँ, पर वह समझती ही नहीं।’’
‘‘क्या कहती है?’’
‘‘लड़की के माता-पिता को अपने ही घर में लड़की से यह काम नहीं होने देना चाहिए था।’’
पण्डित ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘परन्तु अब तो हो गया है और इस आयु में होने में हानि भी नहीं। इस प्रयोजन के लिए ही विवाह किया गया था और वह प्रयोजन विपिन और उसकी पत्नी ने सम्पन्न किया है।’’
‘‘पण्डित जी! राम की माँ को हमारे घर भेज विपिन की माँ को समझा दीजिए।’’
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