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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘ठीक है। मैं राम की माँ से कह देता हूँ।’’

श्यामबिहारी गया तो पण्डित ने राम से कहा, ‘‘माँ को बुला लाओ।’’

वह आई तो पण्डित जी ने श्यामबिहारी की पूरी बात बता दी। दुर्गा ने बात सुन जाने से पहले कहा, ‘‘मैं जाती तो हूँ, परन्तु वह मानेगी नहीं।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरी उससे बातचीत हुई है। इस विषय पर तो नहीं। यह तो हमें विदित ही नहीं था। हाँ, गौना के विषय में हुई है। वह समझती थी कि वहाँ विपिन का विवाह कर भूल की है। वह आगरा में रहते हुए भी हम देहातियों का पेट नहीं भर सके। विवाह का कुछ दिया नहीं और गौना पर देने को कुछ है नहीं।’’

‘‘तो तुमने उसे कहा नहीं कि गौना तो लड़की का होना है, न कि विपिन के श्वसुर की धन-दौलत का।’’

दुर्गा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘वह बहुत लोभी है और वह धन-दौलत के साथ ही बहू को लाने की इच्छा करती है।’’

‘‘अच्छा, अब इस स्थिति में देखो वह क्या कहती है। उसे कह देना कि आज आगरा में हिन्दू और मुसलमानों में मेल-जोल बढ़ रहा है। उसे कहना कि जब से जयपुर की लड़की राजमहल में आई है, हिन्दू-मुसलमान का समन्वय हो रहा है। मगर यह समन्वय एक ही दिशा में चल रहा है। हिन्दू लड़कियाँ मुसलमानों के घर में जा रही हैं, मुसलमान लड़की किसी हिन्दू के घर में नहीं आती।’’

‘‘यह तो ठीक ही हो रहा है। मुसलमान की लड़की हिन्दू परिवार में पति के मत की होगी नहीं। साथ ही हिन्दू के घर में आनेवाली मुसलमान लड़की हिन्दू परिवार को दूषित कर देगी।’’

‘‘कैसे दूषित कर देगी?’’

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