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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘उनके साथ खा-पीकर।’’

‘‘और पवित्र लोगों के घर में मुसलमान लड़की पवित्र क्यों नहीं हो जाएगी?’’

‘‘आसमान में बिना पंखो के उड़ा नहीं जा सकता। मुसलमान के पंख नहीं होते।’’

‘‘मुझे भय है कि विपिन घर से भाग जाएगा और आगरे में किसी मुसलमान की लपेट में आ गया तो मुसलमान हो जाएगा। उसका गौना हो जाना चाहिए।’’

पण्डिताइन गई और बाहर जाने योग्य वस्त्र पहन पड़ोसियों के मकान में जाने के लिए निकली तो उसने देखा कि एक रथ द्वार पर आकर खड़ा हो गया है। इस बार रथवान एक हिन्दू प्रतीत होता था। वह तिलक लगाए हुए था।

दुर्गा ने रथवान से पूछा, ‘‘यह किसके लिये आया है?’’

‘‘पण्डित विभूतचरण जी के लिए।’’

‘‘कहाँ से आया है?’’

‘‘आगरा से। महारानी जी ने पण्डित जी को अपना नमस्कार भेजा है और उन्हें बुलाया है।’’

दुर्गा लाला के घर जाए बिना लौट आई और आगरा से रथ आने की सूचना पति को देना लगी।

‘‘महारानी के लड़का हुआ है।’’ पण्डित जी ने कह दिया।

‘‘तो यहाँ बैठे पता चल गया है?’’

‘‘यह ज्योतिष विद्या से नहीं कह रहा। यह तो दो और दो जमा कर चार जानने से बता रहा हूँ।’’

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