उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तो अब?’’
‘‘रथवान को भोजनादि करवाओ। मैं तैयार हो रहा हूँ।’’
दुर्गा अपनी लड़की सरस्वती को बाहर रथवान को भोजन कराने के लिए कह लाला श्यामबिहारी के घर चली गई।
जब तक रथवान भोजन करे और विभूतिचरण आगरा जाने की तैयारी करे, श्यामबिहारी, विपिन की माँ मालती और पण्डित जी की पत्नी दुर्गा आ गईं।
पण्डित जी ने बिठाते हुए पूछा, ‘‘लाला जी, बताइए, कैसे आना हुआ?’’
श्यामबिहारी ने कहा, ‘‘विपिन तो आगरा चला गया है और मैं तथा विपिन की माँ उसके पीछे-पीछे जा रहे हैं। लड़का तिजोरी से बहुत कुछ निकालकर ले गया है।’’
‘‘वह कैसे गया है?’’
‘‘कल्लू के इक्के में।’’
‘‘तो ऐसा करो। मेरे साथ अभी चलो। मैं भी आगरा जा रहा हूँ। शाही रथ आया है। हम समझते हैं कि हम मार्ग में ही विपिन को पकड़ सकेंगे। मगर लाला बहू को घर लाने के लिए तैयार है क्या?’’
‘‘यह चोरी कर तो उसने सिद्ध कर दिया है कि वह भी अब इस घर में रखने योग्य नहीं रहा। परन्तु पहले तो धन वापस आना चाहिए।’’
‘‘तो चलो। विपिन की माँ को फिर ले चलेंगे। अभी तो आप अकेले ही चलें।’’
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