उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मूर्ति स्थापित होते ही शंख, घड़ियाल, तुर्रियों और ढोल-नगाड़ों से परमात्मा की जयजयकार की जाएगी। यह दो पल तक चलेगी। लोग अपने साथ शंख ला सकें, लाएँ और बजाएँ। तब मंदिर के गोपुर से घड़ियाल बजाया जाएगा और फिर भगवान की आरती उतारी जाएगी। मंदिर पर खड़े एक सौ एक पंडित यह आरती गाएँगे। लोग शांत हो सुनेंगे।’’
‘‘इस आरती के उपरांत सबको प्रसाद बाँटा जाएगा। प्रसाद बाँटने की प्रक्रिया यह होगी कि लोग पंक्ति बाँधकर मंदिर में एक द्वार से आएँगे, वहाँ प्रसाद लेंगे और दूसरे द्वार से निकलते जाएँगे। यह उत्सव की समाप्ति होगी।’’
‘‘इसमें तो बहुत देर लग जाएगी।’’
‘‘देखिए सेठ जी! यह सब जनता में पहले घोषणा कर दीजिए। नियंत्रण भंग करनेवाला देवता का अपमान करेगा और पाप का भागी होगा। यह सब पहले बता देना चाहिए।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि यदि एक सौ युवक स्वयंसेवक प्रबंध के लिए कटिबद्ध मिल जाएँ तो सब प्रबंध हो जाएगा।’’
इस कार्यक्रम की व्याख्या और प्रबंध की बातचीत हो रही थी कि शहंशाह का सिपाही विभूतिचरण को ढूँढता हुआ आया। उसने सबके सम्मुख ही शहंशाह की आज्ञा सुना दी। उसने कहा, ‘‘शहंशाह पंडित विभूतिचरण को याद करते हैं। वह अपने मंदिर-उद्घाटन के वक्त जाने के विषय में राय करना चाहते हैं।’’
विभूतिचरण ने सब एकत्रित हुए सेठों से कह दिया, ‘‘मैं शहंशाह से मिलने के उपरांत पुनः आपसे मिलकर कार्यक्रम को अंतिम रूप दूँगा।’’
इतना कह पंडित उसी सिपाही के साथ महारानी द्वारा दिए रथ में ही महल में जा पहुँचा। पंडित को भीतर सूचना जाते ही बुला लिया गया।
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