उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
जब विभूतिचरण पुनः आशीर्वाद दे सामने खड़ा हुआ तो अकबर खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘महारानी ने हमें समझा दिया है कि हमें मंदिर की इफ्तताही रस्म के वक्त हाजिर होना चाहिए। अब बताओ, हमें किस तरह और कब वहाँ आना चाहिए?’’
विभूतिचरण ने आँखें मूँदकर एक क्षण-भर ही विचार किया और कह दिया, ‘‘हुज़ूर! दूसरे पहले दो घड़ी गुजरने पर मंदिर का मुहूर्त होगा। उससे पहले शहंशाह वहाँ पहुँच जाएँ तो बहुत जल्दी फारिग हो जाएँगे। सबसे पहले हुजूर का ही मंदिर में प्रवेश होगा। यह इंतजाम मैं कर दूँगा।’’
‘‘शहंशाह को राजपूत सिपाहियों के संरक्षण में आना चाहिए। उनकी सहायता से उनको सबसे पहले दर्शन हो सकेंगे।’’
‘‘मगर पंडित जी! क्या हम मंदिर में जा सकेंगे?’’
‘‘सब लोग जो वहाँ जाएँगे एक पंक्ति में भीतर जाएँगे, मंदिर में मूर्ति की प्रदक्षिणा कर सकेंगे। इसमें हिंदू-मुसलमान तथा ऊँच-नीच में भेद-भाव नहीं किया जाएगा। मंदिर में मूर्ति के समीप तो केवल पुजारी ही बैठेगा और शेष सब एक मुनासिब फासले से मूर्ति के दीदार हासिल कर सकेंगे।’’
शहंशाह इस प्रबंध से विस्मय में पंडित का मुख देखने लगा। फिर पूछने लगा, ‘‘कितने लोग वहाँ जमा होनेवाले हैं?’’
‘‘हुज़ूर! कह नहीं सकता। इस पर भी प्रबंधकों को मैंने कहा है कि दो लाख की भीड़ का प्रबंध करना होगा।’’
‘‘तो इंतजाम के लिए सिपाही वहाँ भेजे जाएँ?’’
‘‘नहीं जहाँपनाह! परमात्मा के काम में दुनियावी शहंशाह के दखल की जरूरत नहीं।’’
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