उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हमें डर है कि लोग वहाँ लड़ पड़ेंगे। सब लोग पहले दर्शन करना चाहेंगे और झगड़ा हो सकता है।’’
‘‘कुछ भी हो जहाँपनाह! कोई हिंदू नहीं चाहेगा कि राजसी कर्मचारी मंदर के प्रबंध में दखल दें।’’
‘‘हम मानसिंह को इंतजाम के लिए कह देंगे। फिर तो किसी हिंदू को ऐतराज नहीं होगा।’’
‘‘जहाँपनाह! यहाँ हिंदू-मुसलमान का सवाल नहीं। भगवान के दरबार में हिन्दू-मुसलमान में फरक नहीं। वहाँ तो सब बराबर हैं। सवाल दुनियावी शहंशाह और जगत् के शहंशाह का है। हम चाहते हैं कि भगवान् को अपना इंतजाम खुद करने दें। हम दुनियावी सुलतानों का उसके घर में इंतजाम पसंद नहीं करते।’’
अकबर समझ रहा था कि पंडित परमात्मा पर सीमा से अधिक भरोसा कर रहा है। परंतु वह बिना मंदिरवालों की स्वीकृति के राजसी प्रबंध करना नहीं चाहता था। इस पर भी वह अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर ही उस उत्सव में जाना चाहता था।
इस पर अकबर उठ खड़ा हुआ। विभूतिचरण भी उठ पड़ा। शहंशाह ने खड़े-खड़े ही कहा, ‘‘हमें मालूम हुआ है कि तुम्हारी पत्नी बहुत ही गुरबत की जिंदगी गुजार रही है। इसलिए हम उसकी कुछ मदद करना चाहते हैं और इसमें तुमको हरज नहीं होना चाहिए।’’
‘‘उसके सुख-भाग में मैं बाधक क्यों हूँगा?’’
‘‘तब ठीक है। अब तुम जा सकते हो। पहली वैशाख को हम भटियारिन की सराय पर पहुँचेंगे और उम्मीद करते हैं कि हमें अपने देवता के दर्शन बाआसानी करा दोगे।’’
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