उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
पंडित ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘भगवान आपको सुमति दे।’’ इतना कह पंडित दीवानखाने से बाहर निकल आया। जब वह महल के बाहर रथ पर बैठने लगा तो वही राजपूत सिपाही, जो महारानी की भेंट पंडिताइन दुर्गा के लिए दे गए थे, समीप खड़े थे। जब विभूतिचरण रथ पर सवार होने लगा तो उन्होंने कहा, ‘‘महारानी जी से आपके प्रश्न का उत्तर मिला है। उनका कहना है कि वहाँ आपके गाँव में तीन बच्चे हैं। राम, रवि और सरस्वती। उनकी माँ बहन दुर्गा देवी है। वह धन दुर्गा देवी के लिए है। आप उसे यह पहुँचा दें और उसे कह दें कि यह उसकी लड़की सरस्वती के विवाह के लिए महारानी जी की भेंट है।’’
‘‘समझ गया हूँ।’’ पंडित रथ पर सवार हुआ और सराय को चल दिया। रात को पंडित सराय में ही रहा। रात एक प्रहर व्यतीत होने पर श्यामबिहारी, पंडित का पड़ोसी लाला, आया और पंडित जी से बोला, ‘‘मैं, विपिन और उसकी पत्नी कल यहाँ से चलेंगे। आप कल जा रहे हैं?’’
‘‘मैं भी कल बहुत प्रातःकाल यहाँ से चलूँगा।’’
‘‘तब तो हम आपके रथ के साथ-साथ ही चलेंगे। हमने दो रथ किए हैं। एक में मैं और विदाई का सामान होगा और दूसरे में लड़का और बहू होंगे। तीन भाड़े के संरक्षक घुड़सवार, तलवार और तीर-कमान से लैस साथ मिलेंगे।’’
‘‘ये संरक्षक किसने दिए हैं।’’
‘‘मैंने यहाँ के कोतवाल से अर्जी की थी और कोतवाल ने दिए हैं। उनका भाड़ा दो रुपए प्रति संरक्षक प्रतिदिन के हिसाब से देना पड़ेगा। उनके आने-जाने में दो दिन लगेंगे।’’
‘‘तब तो ठीक है।’’ श्यामबिहारी गया तो नगर सेठ आ गए। पंडित ने उनको बताया कि उद्घाटन के दिन शहंशाह अकबर भी वहाँ आएगा। प्रबंध ऐसा होना चाहिए कि उसे देवता के दर्शन सबसे पहले हो सकें।
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