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प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।

6

पंडित गाँव में पहुँचा तो श्यामबिहारी के मित्र और परिवार के लोग गाँव के बाहर अपने लड़के तथा बहू की अगवानी करने के लिए खड़े थे। वे गाँव का बाजा भी साथ लाए हुए थे। पंडित समझ गया कि श्यामबिहारी ने अपने पहुँचने का समय पहले दिन ही किसी व्यक्ति के हाथ बता भेजा होगा। इस धूमधाम की अगवानी में इच्छा न रहते भी पंडित सम्मिलित हो गया। पंडित की पत्नी और बच्चे भी श्यामबिहारी की हवेली के बाहर पहुँचे हुए थे।

पंडित के मन में महारानी तथा शहंशाह तक दुर्गा की अकिंचनता और लड़की के विवाह का समाचार पहुँचने पर विस्मय हो रहा था। इस कारण घर पहुँचते ही पंडित ने पत्नी से पूछ लिया, ‘‘देवि! बहुत कष्ट है तुम्हें इस निर्धन ब्राह्मण के घर आने का?’’

‘‘नहीं तो। किसने कहा है यह आपसे?’’ दुर्गा ने विस्मय प्रकट करते हुए पूछा।

‘‘इस बार राजमहल में धूम मची हुई थी कि पंडित की पत्नी बहुत कष्ट में है। उस बेचारी के पास तो एक रुपया भी नहीं और उसकी लड़की सज्ञान, विवाह के योग्य हो गई है। उसके हाथ पीले करने के लिए पंडित के पास कुछ भी नहीं।’’

‘‘यह किसी ने मनगढ़ंत कहानी कही है। यह ठीक है कि हमारे पास कुछ नहीं। आप किसी से लेते ही नहीं। परंतु मुझे कष्ट है, लड़की सज्ञान हो गई है और उसके विवाह की मुझे चिंता लग रही है, सब इस लाला जो आपके साथ गया था, वहाँ विख्यात किया प्रतीत होता है।’’

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