उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘यह देखो।’ विभूतिचरण ने एक थैली निकाल दुर्गा को देते हुए कहा, ‘‘यह शहंशाह की हिंदू महारानी ने तुम्हारे लिए भेजी है। उनका कहना है कि हमारे गाँव में एक दुर्गा पंडिताइन रहती है। वह राम और रवि दो पुत्रों की माँ है। यह धन उसकी लड़की सरस्वती के विवाह के लिए है।’’
इस पर दुर्गा ने कहा, ‘‘और यह क्या है?’’ उसने पंडित जी के कपड़ों के थैले के साथ एक अन्य थैली दिखाते हुए कहा।
पंडित एक दूसरी थैली पत्नी के हाथ में देख पूछने लगा, ‘‘यह कहाँ से पा गई हो?’’
‘‘शाही रथ के रथवान ने यह मुझे दी है और कहा है कि जलालुद्दीन अकबर शहंशाह अजीम, बादशाह-ए-हिंद ने यह पंडित विभूतिचरण जी की धर्म-पत्नी को भेजी है। यह पंडित जी की पत्नी के प्रयोग के लिए ही है।’’
‘‘ओह!’’ पंडित जी के मुख से अकस्मात् निकल गया और वह अवाक् पत्नी का मुख देखता रह गया। उसने विचार कर कहा, ‘‘यह दूसरी थैली शहंशाह ने दी मालूम होती है।’’
‘‘जी।’’ दुर्गा ने कहा, ‘‘मैं नहीं जानती कि यह सब यहाँ का वृत्तांत कैसे वहाँ पहुँच गया है। इस पर भी प्रसन्नता का विषय है कि आपका व्रत कि आप नकद किसी से नहीं लेंगे, भी पूरा हो रहा है और भगवान हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर रहा है।’’
‘‘हाँ। यह तो है। मगर यह भी समझ लो कि यह शाही मुहरें नर-रक्त से सिक्त हैं। इसको छूने मात्र से भी दोष लग सकता है।’’
दुर्गा ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘आप संसार-भर को प्रायश्चित्त कराते फिरते हैं। आप इस धन के दोष को दूर नहीं कर सकते क्या?’’
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