उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘कर तो सकता हूँ। परंतु अभी तुम इसे भूमि में गाड़ दो। फिर इसको किसी पुण्य काम में प्रयोग करने से पहली इसकी शुद्धि करूँगा। मैं अपने तथा अपने किसी प्रिय के प्रयोग में इसे तब तक नहीं ला सकता जब तक इसकी शुद्धि नहीं हो जाती।’’
‘‘यह शुद्धि कैसे होगी?’’
‘‘यह विचार कर बताऊँगा।’’
विभूतिचरण इन मुहरों की दो थैलियों की कथा को समझ नहीं सका था कि उसके घर की अवस्था का ज्ञान शाही महल तक कैसे पहुँचा? शहंशाह ने कहा था कि वह उसकी पत्नी की सहायता करना चाहते हैं और महारानी जी ने राजपूत सिपाहियों के हाथ कहलवा भेजा था कि पंडित जी के गाँव में एक राम, रवि तथा सरस्वती की माता पंडिताइन दुर्गा रहती है और यह धन उसकी बेटी सरस्वती की शादी पर व्यय करने के लिए है।
दोनों थैलियों का धन एक सहस्र स्वर्ण शाही मुद्राएँ थीं। उन दिनों की दर से वह बीस सबस्र रुपये के बराबर था।
एक बात वह समझ गया था कि राजा-रईस और धनी-मानी लोग अस्थिर बुद्धि होते हैं। यही कारण है कि एक घड़ी पूर्व जिसे फाँसी लटकाने की आज्ञा होनेवाली थी, उसे ही शहंशाह ने मालामाल कर दिया था। संभव है कि किसी भी दिन उसके कर्मचारी यहाँ आ उसके पूर्ण गृहसंपद् को उखाड़ ईंट, चूना कर दें। भटियारिन की सराय की गिरी हालत देख चुका था।
इस विचार से वह काँप उठा। उसने यह धन मकान में भूमि में दबाने के स्थान पर श्यामबिहारी लाला के पास जमा करा दिया और कहा, ‘‘लाला, इसे रखो। यह शहंशाह ने अपने शहज़ादे के विषय में भविष्यवाणी तथा उसकी कुंडली बनाने के प्रतिकार में दिया है।’’
|