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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


श्यामबिहारी चमचमाती मुहरों को देख समझ गया कि शाही टकशाल से तरोताज़ी बनकर आई हैं। उसने अपनी बही में विभूतिचरण का खाता खोल लिया और पंडित का एक सहस्र स्वर्ण मुहरें और उनका भार एक सहस्र तोला लिख लिया।

विपिनबिहारी राम का मित्र था और राम को अपनी पत्नी की कथाएँ बताया करता था और राम उनको अपने पिता से बताया करता था। विभूतिचरण उनको ध्यान से सुना करता था। वह समझ रहा था कि बच्चों के मन में किसी प्रकार की विकृत इच्छाओं के बनने से पूर्व ही वह उनको तब समझा सकेगा जब राम इत्यादि उसको विपिन तथा उसकी पत्नी की बातें निस्संकोच बता रहे होंगे।

एक दिन माता-पिता भोजन करने के उपरांत बैठे भटियारिन की सरायवाले मंदिर के उद्घाटन के विषय पर बात कर रहे थे कि सरस्वती बोल उठी, ‘‘विपिन भापा की बहू नंदिनी कह रही थी कि वह भी मंदिर देखने जाएगी।’’

‘‘यह तो होनी ही चाहिए।’’ पंडित ने कहा। इस पर दुर्गा ने कहा, ‘‘वह जा नहीं सकेगी और यदि गई तो कष्ट में भी पड़ सकती है।’’

‘‘क्यों नहीं जा सकेगी?’’ विभूतिचरण ने पत्नी से पूछ लिया।

‘‘यह इस कारण कि उसके पेट में सातवें महीने का बच्चा है।’’

‘‘माता जी!’’ सरस्वती ने पूछा, ‘‘यह बच्चा कहाँ से आ गया है?’’

पंडित अभी विचार ही कर रहा था कि बच्चे के आने को किस प्रकार समझाए कि राम बोल उठा, ‘‘मैं जानता हूँ। यह विपिन भापा ने अपनी पत्नी के पेट में डाल दिया है।’’

‘‘पर क्यों और कैसे?’’ सरस्वती को राम का उत्तर पर्याप्त स्पष्ट नहीं लगा।

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