उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
राम ने बताया, ‘‘विपिन और नंदिनी रात एक ही खाट पर सोते हैं और उसी समय विपिन ने यह बच्चा नंदिनी भाभी के पेट में डाल दिया है।’’
‘‘कैसे डाल दिया है?’’ सरस्वती ने फिर पूछा।
इस पर पंडित जी ने बताने का निश्चय कर बच्चों को चुप कराकर कहा, ‘‘सरस्वती! मैं बताता हूँ। ध्यान से सुनोगी तो समझ जाओगी।’’
‘‘शरीर दो वस्तुओं का बना है। एक अन्न और दूसरा प्राण। अन्न का अभिप्राय है वस्तु अर्थात् मांस, हड्डी, रक्त और मज्जा इत्यादि। और प्राण का अभिप्राय है हिलने-डुलने, सूँघने तथा देखने इत्यादि की शक्ति। ये दोनों इस पृथ्वी पर सूर्य से आती हैं। सूर्य की किरणों से गेहूँ, मक्की, केला, अमरूद इत्यादि खाने के पदार्थों से अन्न बनता है। वही जब हम खाते हैं तो मांस, रक्त इत्यादि बन जाते हैं। शरीर की इंद्रियों में जो काम करने की सामर्थ्य आती है वह भी सूर्य द्वारा अन्न में आती है और फिर हमारे शरीर में भोजन के साथ जाती है।
‘‘देखो, यदि हम भोजन करना छोड़ दें तो जहाँ हमारा शरीर शिथिल हो जाएगा वहाँ यह क्षीण भी होने लगेगा। भोजन लेने से पुनः दोनों बातें पैदा हो जाती हैं। मांस इत्यादि भी बनने लगता है और शरीर की दुर्बलता भी दूर हो जाती है।’’
‘‘सूर्य में यह शक्ति परमात्मा की है। अतः शरीर में ही अन्न से शरीर बनता है। नंदिनी के पेट में बच्चे का शरीर उस भोजन से ही बना है जो वह खाती रही है।’’
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