उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘जब शरीर बन जाता है तो फिर जीवात्मा शरीर में घुस जाता है। यह बहुत ही सूक्ष्म होता है। इतना सूक्ष्म कि दिखाई भी नहीं देता और हमारे जो रोम-छिद्र हैं, इनमें से भी भीतर जा सकता है। जब शरीर बन जाता है तो यह उस बने शरीर में ऐसे जा बैठता है जैसे मकान बन जाने पर मकान का मालिक उसमें बैठ जाता है।’’
सरस्वती ने कहा, ‘‘अब समझी हूँ। परंतु पिता जी! इसमें विपिन भापा ने क्या किया है? वह क्यों कहता है कि वह उसका बच्चा है?’’
‘‘उस दिन वह कह रहा था कि यह उसका ही है। मैंने पूछा था कि तुम्हारा कैसे है? इस पर वह हँस पड़ा और उसने बताया नहीं।’’
‘‘वह इसलिए कि वह स्वयं नहीं जानता। जानता होता तो बता देता। यदि बिना जाने बताता तो कुछ गलत बता देता।’’
‘‘नहीं जानता तो वह क्यों कहता है कि बच्चा उसने बनाया है?’’
‘‘मूर्ख ऐसा कहा ही करते हैं। एक राजा का दरबान यह समझता है कि राज्य वह चलाता है। एक सेना का सिपाही समझता है कि राज्य वह चला रहा है। राजा समझता है कि राज्य वह चला रहा है। वास्तव में राज्य तो राजा से रंक तक सब चलाते हैं। इसी प्रकार बच्चा पति-पत्नी और सबसे बढ़कर परमात्मा के सहयोग से बनता है।’’
‘‘पर पिता जी! कैसे? मैं यही तो पूछ रही हूँ।’’
‘‘जैसे मैं कुंडली बना लेता हूँ और फिर उससे लोगों के मरण पर्यंत का वृत्तांत जान लेता हूँ। जब तुम मेरी विद्या पढ़ोगी तो तुम भी जान सकोगी। इसी प्रकार जब तुम नंदिनी जितना पढ़ जाओगी तो तुम भी यह विद्या जान जाओगी।’’
|