उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘आपके ज्योतिषी हैं।’’
‘‘यह पूछ रहे हैं कि क्या तुम हिंदू हो?’’
‘‘मैं हिंदू नहीं हूँ।’’
‘‘तो तुम मंदिर किस काम से गई थीं?’’
‘‘आप भी तो गए थे?’’
‘‘मैं तो तमाशा देखने गया था।’’
‘‘मेरा भी जी चाहता था तमाशा देखने को।’’
‘‘तो तुम पूजा करने नहीं गई थीं?’’
‘‘जी नहीं। मैं हिंदू नहीं हूँ।’’
‘‘तो तुम मुसलमान हो?’’
‘‘नहीं हुजूर! मुझसे नमाज पढ़ी नहीं जाती।’’
‘‘तो तुम क्या हो?’’
‘‘एक औरत हूँ।’’
अकबर हँस पड़ा और बोला, ‘‘अच्छा तुम जा सकती हो।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘अपने बच्चे के पास।’’
‘‘हुज़ूर! इस वक्त कैसे जाऊँगी?’’
‘‘यह पंडित जी अपने रथ में तुम्हें ले जाएँगे।’’
‘‘पंडित जी, ले चलेंगे?’’
‘‘हाँ। ले चलूँगा।’’
सुंदरी ने कदम बोसी की और पंडित जी से बोली, ‘‘तो चलिए।’’
‘‘भगवान आपको ता-हयात सेहत और कामयाबी बख्शे।’’ पंडित ने यह शहंशाह को कहा और सुंदरी के साथ दीवानखाने से निकल गया।
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