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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘मगर मैं इस जुर्म से इंकार करता हूँ। मैं अपनी जिंदगी में उससे सिर्फ एक बार और वह भी आधी घड़ी के लिए मिला हूँ। इतने कम वक्त में कितना कूड़ा-कर्कट भरा जा सकता है? साथ ही उस वक्त मैंने उसे एक ही बात कही थी। जब उसने कहा था कि वह जन्म से ही मुसलमान है तो मैंने उससे पूछा था कि वह कलमा पढ़ती-पढ़ती पैदा हुई थी? बस इससे ज्यादा बात नहीं हुई।’’

‘‘मगर वह तो अब एक फलसफादान की तरह रूह और जिस्म की बात करती है।’’

‘‘मैंने पूछा, ‘‘अब तुम कहाँ जाओगी?’’

‘‘बोली, ‘‘अपने शौहर के घर।’’

‘‘मैंने कहा, ‘‘मगर तुम मुसलमान हो।’’

‘‘वह बोली, ‘‘मेरे जिस्म पर कोई निशान हो तो बताइए।’’

‘‘अब बताओ। मैं क्या करूँ?’’

‘‘मेरी इल्तजा है कि उसे अपने खाविंद के पास भेज दें। इसी वक्त। जिससे रात वह उसकी सोहबत में रह सके।’’

‘‘ओह। तुम ठीक कहते हो। मगर यह फलसफा और हाजिर जवाबी तुमने उसमें पैदा की है?’’

‘‘जहाँपनाह! नहीं। मैं परमात्मा की हाज़िर-नाज़िर समझ यह कहता हूँ कि मैंने उसे कुछ नहीं सिखाया।’’

अकबर ने ताली बजाई। एक दरबान आया तो उसे हुक्म दे दिया, ‘‘उस लड़की को जो महारानी बेगम के पास है, बुलाओ।’’

सुंदरी अभी तक उसी पहरावे में थी जिसमें वह सुबह मंदिर में आई थी। उसके आते ही अकबर ने पूछा, ‘‘देखो। इन पंडित जी को जानती हो?’’

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