उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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जब फकीरचन्द राजा साहब के पास ढाई सौ रुपये लेकर पहुँचा तो राजा साहब के कर्मचारियों और राजा साहब को विस्मय हुआ। फकीरचन्द ने ढाई सौ रुपये एक चाँदी की तश्तरी में राजा साहब के सामने रख दिये। राजा साहब ने पूछा, ‘‘यह क्या है?’’
‘‘महाराज ! मैं आपकी प्रजा हूँ। आपको स्मरण होगा कि दो वर्ष से कुछ ऊपर हो गये हैं कि आपने मेरी माँ के नाम जंगल की भूमि के एक किता का पट्टा दिया था। आपका, कदाचित, विचार था कि भूमि को खेतीबाड़ी के योग्य करने में दस वर्ष लग जाएँगे। परन्तु महाराज ! मैंने थोड़ी-थोड़ी भूमि से जंगल कटवाना और काश्त करने में सफल हो गया हूँ। अतः माता जी ने कहा है कि हमको अपने भाग का लाभ मिला है, तो भूमि के मालिक को भी उनका भाग मिलना चाहिए। अतः मैं पचास बीघा का लगान देने के लिए सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।’’
‘‘पर मैंने सुना है कि तुमको लकड़ी बेचकर बहुत आय हुई है?’’
‘‘हाँ महाराज ! उसमें से आपका भाग मैं नियमानुकूल दे रहा हूँ। एक आना मन आपका भाग लिखा है। वह मैं आपके मुन्शी को सदैव देता रहता हूँ।’’
‘‘ठीक है। हम उससे असन्तुष्ट नहीं। मैं तो यह जानना चाहता हूँ कि नकद प्रति मन तुमको क्या बच जाता है?’’
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