लोगों की राय

उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

270 पाठक हैं

बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘महाराज ! छः आने मन लकड़ी बिकती है। पेड़ों की कटाई, चिरवाई और स्टेशन तक ढुलवाई ढाई आना, तीन आना मन पड़ जाती है। फिर दो पैसा मन अपने एजेण्टों को, जो बेचने का काम करते हैं, देता हूँ। इस प्रकार मुझे लगभग एक-डेढ़ आना मन बचत होती है।’’

‘‘तब तो ठीक है। यह तो कुछ अधिक नहीं। इसपर भी यह रुपया तो हम अपने पट्टे की शर्त के अनुसार ले नहीं सकते।’’

‘‘पर यह तो हम अपनी इच्चा से दे रहे हैं। इसमें लिखे या न लिखे की बात ही नहीं उठती।’’

महाराज ने मैनेजर को बुलाकर फकीरचन्द की बात बताई। मैनेजर के मन में एक विचार तो यह आया कि इन माँ-बेटे का मस्तिष्क बिगड़ा गया है; परन्तु कुछ विचारकर बोला, ‘‘महाराज ! यह रुपया लगान के रूप में तो आप ले नहीं सकते। न ही मैं इस रुपये की रसीद दे सकता हूँ। हाँ, यह भेंट के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।’’

‘‘पर भेंट तो राजमाता ही लेती हैं, हम नहीं लेते।’’

‘‘तो महाराज !’’ फकीरचन्द ने कह दिया, ‘‘मेरी माताजी की वह भेंट राजमाता के चरणों में भेज दी जाय।’’

राजा साहब ने कुछ विचारकर कहा, ‘‘ठीक तो है। यह तुम्हारी भेंट माताजी के पास भेज दी जायगी। वे इसको लेती हैं अथवा नहीं, यह हम तुम्हें कल तक बता सकेंगे।’’

उसी सायंकाल फकीरचन्द को, दो धर्मशाला में ठहरा हुआ था, यह सन्देश मिला कि राजमाता उसको बुला रही हैं।

फकीरचन्द राजप्रासाद के द्वार पर उपस्थित हुआ तो तुरन्त भीतर बुला लिया गया। राजमाता के पास राजा साहब भी उपस्थित थे। फकीरचन्द ने हाथ जोड़कर जब नमस्कार किया, तो उसको सामने बैठने का आदेश देकर राजमाता ने पूछा, ‘‘कहाँ के निवासी हो?’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book