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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

चौथा दृश्य

(देवीदीन की दुकान। रात्रि का गहन अंधकार एक चिमचिमाते दीप से धुँधलसा रहा है। चारों ओर सन्नाटा– सा है। देवीदीन खाना खाने जा रहा है, वह कुछ ढूँढ़ता है तभी एक व्यक्ति वहाँ आता है। प्रायः नंगा, सिर पर चादर बाँधे है। देवीदीन उसे देखकर चौंकता है।)

देवीदीन—कौन है?

(वह व्यक्ति बिना कुछ बोले दीये के पास आता है। देवीदीन उसे पहचान लेता है झपट कर उसका हाथ पकड़ लेता है। वह रमानाथ है।)

देवीदीन—भइया!

रमानाथ—हाँ दादा!

देवीदीन—तुमने तो भैया, खूब भेस बनाया है। कपड़े क्या हुए?

रमानाथ—तार से निकल रहा था, सब उसके काँटे में उलझ कर फट गये।

देवीदीन—राम– राम! देह में तो काँटे नहीं चुभे?

रमानाथ—कुछ नहीं, दो– एक खरोंचे लग गयीं। मैं बहुत बचा कर निकला।

देवीदीन—बहू की चिट्ठी मिल गयी न?

रमानाथ—हां, उसी वक्त मिल गयी। क्या वह तुम्हारे साथ थी?

देवीदीन—वह मेरे साथ नहीं थीं, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा तभी से जाने– जाने लगाये हुई थी।

रमानाथ—तुमने कोई खत लिखा था?

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