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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


देवीदीन—मैंने कोई खत– पत्तर नहीं लिखा भैया! जब वह आयीं तो मुझे आप ही अचम्भा हुआ कि बिना जाने– बूझे कैसे आ गयीं? पीछे से उन्हें बताया।

रमानाथ—(चकित) क्या बताया?

देवीदीन—वह शतरंजवाला नकशा उन्होंने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।

रमानाथ—(हठात् आँखें फैल जाती हैं) क्या…

देवीदीन—हाँ वहीं से आया था। रसीद पर तुम्हारे दस्तखत देख कर बहू यहाँ चली आयीं। (बाहर देख कर) अरे क्या करती है? बहू से कह दे, एक आदमी उनसे मिलने आया है। (रमा का हाथ पकड़ कर) चलो अब सरकार से तुम्हारी पेसी होगी; बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़े गये। इतनी आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती। (रमा हाथ छुड़ाकर ठिठक जाता है) क्यों रुक गये?

रमानाथ—(सिर खुजलाते हुए) चलो, मैं आता हूँ।

देवीदीन—(बुढ़िया से) अरे, कहा नहीं?

जग्गो—(बाहर से) कौन आदमी है? कहा से आया है?

देवीदीन—(विनोद से) कहता है, जो कुछ कहूँगा, बहू से ही कहूँगा।

जग्गो—बाहर से कोई चिट्ठी लाया है?

देवीदीन—नहीं।

(क्षणिक सन्नाटा)

देवीदीन—कह दूं लौट जाय?

जालपा का स्वर—कौन आदमी है पूछती तो हूँ।

देवीदीन—कहता है, बडी दूर से आया हूँ।

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