नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
दूसरा दृश्य
(वही पहले दृश्य वाला स्थान। समय कुछ आगे बढ़ गया है पर रमानाथ बैठा– बैठा सोच रहा है।)
रमानाथ—(स्वगत) तीन महीने हो गये घर से भागे। दादा गाड़ी में न मिल जाते तो न जाने कहाँ– कहाँ मारा– मारा फिरता। जात का खटिक है पर दिल भगवान का है। कितना चाहता है, जैसे पिछले जन्म का मीत हो। अब घर ले जाने को तैयार है। घर…..प्रयाग। त्रिवेणी की सैर…अल्फ्रेड पार्क की बहार, खुसरो बाक का आनन्द, मित्रों के जलसे, वे सब देखते ही गले लिपट जायेंगे। पूछेंगे कहाँ गये थे। खूब सैर की। (रमानाथ का मन खिल उठा। वह कल्पनाओं में डूब गया जैसे सब कुछ देख रहा हो) भाई देखते ही दौड़ेंगे, भैया आये, भैया आये। दादा निकल आयेंगे। अम्मा रोती हुई द्वार की ओर चलेंगी। उस वक्त मैं पहुँच कर उनके पैरों पर गिर पड़ूँगा। जालपा वहाँ न आयेगी। वह मान करेगी।…
(और इसी तरह कल्पना में वह सब कुछ भूल गया। नीचे बाजार में शोर मचने लगा, पर उसे कुछ ध्यान नहीं आया, उसने खाने का भी प्रबंध नहीं किया। आखिर देवीदीन भी बाजार से लौट आया।)
देवीदीन—कुछ खबर है, कै बजे हैं? बारह का अमल है। आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना– पीना छोड़ दोगे!
रमानाथ—(सकपका कर) बना लूँगा दादा। जल्दी क्या है?
देवीदीन—अच्छा, यह देखो नमूने लाया हूँ। इनमें कौन– सा पसंद है?
(कहता– कहता वह ढेर सारे नमूने रमानाथ को थमा देता है, वह उन्हें उलटता– पुलटता है।)
रमानाथ—इतने महँगे कपड़े क्यों लाये हो? पाँच छः रुपये गज से कोई कम नहीं है। और सस्ते नहीं थे?
देवीदीन—सस्ते थे, मुदा विलायती थे।
रमानाथ—तुम विलायती कपडे नहीं पहनते?
देवीदीन—इधर बीस साल से तो नहीं पहने, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है पर रुपया तो देश में ही रह जाता है।
रमानाथ—(लजा कर) तुम नियम के बड़े पक्के हो दादा।
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