नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
(देवीदीन की मुद्रा सहसा तेज हो जाती है। आँखें चमक उठती हैं। देह की नसें तन जाती हैं।)
देवीदीन—जिस देश में रहते हैं जिसका अन्न– जल खाते हैं उसके लिए इतना भी न करें, तो जीना धिक्कार है। तुम तो जानते हो, दो जवान बेटे इसी सुदेसी की भेंट कर चुका हूँ भैया। मर गये पर चट्टान की तरह विदेशी कपड़े की दुकान पर तैनात रहे, क्या मजाल थी कि कोई ग्राहक दुकान पर आ जाय। जब अर्थी चली है तो एक लाख आदमी साथ थे। और वे गये तो क्या। आठ दिन तक मैं वहाँ से हिला तक नहीं। जिस दिन दूकानदारों ने कसम खायी की विलायती कपड़े अब न मँगवायेंगे उस दिन पहरा उठाया। तब से विदेशी दियासलाई तक घर में नहीं लाया।
रमा—(सच्चे दिल से) दादा, तुम सच्चे हो और वे दोनों लड़के सच्चे योद्धा थे। तुम्हारे दर्शनों से आँखें पवित्र होती हैं।
देवीदीन—(उसी शान से) और वे जो बड़े– बड़े आदमी हैं उनको बिना विलायती शराब के चैन नहीं। उनके घर में जा कर देखो तो एक भी देसी चीज न मिलेगी। दिखाने को दस– बीस कुरते गाढ़े के बनवा लिये हैं। घर के और सब सामान विलायती हैं। उस पर दावा यह है कि देस का उद्धार करेंगे। अरे तुम क्या देस का उद्धार करोगे। पहले अपना उद्धार तो कर लो, देश के नाम पर रोने से कुछ न होगा। रोने से माँ दूध पिलाती है, शेर अपना शिकार नहीं छोड़ता।
रमा—ठीक कहते हो दादा। यही बात है।
देवीदीन—(उसी प्रवाह में) एक दिन जलसे में एक साहब खूब उछले– कूदे। जब वह नीचे आये तब मैंने उनसे पूछा—साहब, सच बताओ। जब तुम सुराज का नाम लेते हो तो कौन– सा रूप तुम्हारी आँखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी– बड़ी तलब लोगे, तुम भी अँगरेजों की तरह बँगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे। इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा? बस, लगे बगलें झाँकने।
रमा—बगलें न झाँकते तो और क्या करते? सच्ची बात के सामने कोई ठहर सकता है क्या!
देवीदीन—मैंने कहा, तुम दिन में पाँच बेर खाना चाहते हो और वह भी बढ़िया माल। गरीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता। उसी का रक्त चूस कर तो सरकार तुम्हें हुद्दे देती है। तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है। अभी तुम्हारा राज नहीं है तो तुम भोग– विलास पर इतना मरते हो! जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो गरीबों को पीस कर पी जाओगे।
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