नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
तीसरा दृश्य
(जालपा का कमरा। एकदम सादगी है। पर अस्तव्यस्तता नहीं है। उसने स्वयं एक साधारण धोती पहनी है, पर मुख पर एक सौम्य गंभीरता आ गयी है।
वह इस समय फर्श पर शतरंज के मुहरे और नकशे बिछाये कुछ सोच रही है। पास ही एक कापी और कुछ अखबार पड़े हैं। उसके मुख पर एक भाव आता है और एक जाता है।)
जालपा—(स्वगत) नक्शा तो यही है और इसका हल भी है। तो क्यों न यह नक्शा अखबार में छपवा दूँ पर…क्या वे अखबार पढ़ते हैं कितनी बार मैंने अखबार में छपवाया। आग्रह और याचना की। साफ लिखवा दिया कि तुम्हारे जिम्मे किसी का कुछ बाकी नहीं, पर वे नहीं आये। शायद पढ़ा नहीं, शायद पढ़ा पर झूठ माना हो। शायद वे किसी के….(एकदम गरदन को झटका देकर) नहीं– नहीं यह झूठ है, वे मेरे हैं, केवल मेरे….उन्होंने पढ़ा नहीं। न जाने किसी मुसीबत में हैं? न जाने कहाँ हैं? रतन ने कलकत्ते में इतना ढूँढ़ा पता नहीं लगा। बेचारी पति को खो कर चली आयी। कितना प्रेम करती है मुझसे उससे पूछूँ कि क्या यह नक्शा अखबार में छपवा दूँ। शायद उनकी निगाह पड़ जाय। नयन भर आते हैं) तीन महीने हो गये….
(रतन का प्रवेश। विधवा वेश, सादी धोती, कोई जेवर नहीं, मुख पर एक सौम्यता, वीतरागता और प्रेम, जालपा उसे देखती ही खड़ी हो जाती है।)
जालपा—क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादा जी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।
रतन—ज्वर आ रहा है? तुमने मुझसे न कहा।
जालपा—तुमसे क्या कहती! मलेरिया है। दो– चार दिनों में अच्छे हो जायँगे। पर शोर बड़ा मचाते हैं। इस वक्त तो ज्वर कुछ हल्का है। जब जोर का ज्वर होता है, तब तो यह और भी ऊल– जलूल बकने लगते हैं।
रतन—तेज ज्वर में ऐसा ही होता है, बहन।
जालपा—बहन, उस वक्त हँसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे—‘मेरा पेट भक हो गया’, इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था न मैं समझ सकी, न अम्माँ समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे—‘पेट भक हो गया।’
रतन—(हँस पड़ती है) और तुम्हें हँसी आ जाती है। मैं मैं भी रहूँ तो मुझे भी आ जाय, पर ऐसे वक्त हँसना नहीं चाहिए। अच्छा, मेरे साथ न चलेगी?
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