नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—आज तो न चल सकूँगी, बहन।
रतन—कल आओगी?
जालपा—कह नहीं सकती। दादा का जी कुछ हलका रहा तो आऊँगी।
रतन—नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।
जालपा—क्या सलाह है?
रतन—उनके भतीजे हैं न, वे कहते हैं…
जालपा—कौन मणिभूषण? क्या कहते हैं?
रतन—कहते हैं, यहाँ अब रह कर क्या करना है, घर चलो। बँगले को बेच देने को कहते हैं।
जालपा—(एकाएक ठिठक जाती है) यह तो तुमने बुरी खबर सुनायी, बहन, मुझे इस दशा में छोड़ कर चली जाओगी? मैं न जाने दूँगी मणिभूषण से कह दो बँगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल पाएगा, मैं तुम्हें न छोड़ूँगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं। मुझे एक– एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊँ…
रतन—(भावावेश में) बहन, क्या कहती हो…
जालपा—ठीक कहती हूँ, बहन। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। अभी जाने का नाम न लेना।
रतन– (आँखें भर कर) मुझसे भी वहाँ न रहा जाएगा, सच कहती हूँ मैं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है।
जालपा—(रतन के गले में हाथ डाल कर) कसम खाओ कि मुझे छोड़ कर न जाओगी।
रतन—(अँकवार में भर कर) लो कसम खाती हूँ, न जाऊँगी, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहाँ क्या रखा है? बँगला भी क्यों बेचूँ? दो– ढाई सौ मकान का किराया है। हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मणिभूषण से कह दूंगी, मैं न जाऊँगी। (सहसा फर्श पर दृष्टि जाती है) अरे, यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?
जालपा—भाग्य के साथ।
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