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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

आठवाँ दृश्य

( दयानाथ के मकान का बाहरी दृश्य। द्वार पर रतन की कार खड़ी है। बा. दयानाथ, जागेश्वरी, उनके दोनों लड़के, जालपा और रतन सब हैं। जालपा और रमानाथ का छोटा भाई गोपीनाथ जाने को तैयार है। जालपा सास– ससुर के चरण छूती है। वे आशीर्वाद देते हैं। छोटे देवर को, जो रो रहा है वह गले लगा कर प्यार करती है। फिर मुड़ कर रतन से भरे हृदय से बातें करती हुई मोटर की ओर बढ़ती है।)

रतन—तुम्हारी बुद्धिमानी से रमा बाबू का पता लग ही गया। शतरंज का नकशा सबसे पहले उन्होंने ही हल किया है। इसमें आधा श्रेय मेरा है।

जालपा—सारा तुम्हारा है बहन। तुम सहारा न देती तो कैसे होता? मुझे तो पुलिस का डर है कि कहीं…

रतन—डर काहे का। यहाँ से रमेश बाबू ने कह दिया कि उन पर किसी तरह का इल्जाम नहीं है। तब कुछ न होगा।

जालपा—पर बहन! उनका पता कैसे चलेगा? कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा।

रतन—पहले ‘प्रजामित्र’ के कार्यालय में जाना। वहाँ पता चल जायगा।

जालपा—ठहरूँगी कहाँ?

रतन—धर्मशाले हैं। नहीं तो होटल में ठहर जाना। देखो, रुपये की जरूरत पड़े तो मुझे तार देना: कोई– न– कोई इंतजाम करके भेजूंगी।

जालपा—होटल वाले बदमाश तो न होंगे?

रतन—कोई जरा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत! ठोकर जमाकर बात करना। (कमर से एक छुरी निकाल कर) इसे अपने पास रखो। कमर में छिपाये रखना। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है उसे समझ लो कि पल्ले सिरे का कायर, नीच और लम्पट है।

जालपा—हां बहन! वह और क्या हो सकता है!

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