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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

चौथा अंक

पहला दृश्य

(देवीदीन का मकान रमानाथ का कमरा साफ दिखाई दे रहा है। मेज, कुर्सी, चारपाई सब करीने से लगे हैं। सुराही में पानी भरा है।
एक ओर मिठाई और दही रखा है। परदा उठने के बाद देवीदीन और जग्गो के साथ जालपा वहाँ प्रवेश करती है। वह सादे वेश में परम शांत जान पड़ती है। जग्गो रंगीन साड़ी और गहने पहने है। शीघ्रता से आगे बढ़ कर लोटे में पानी भरती है।)

जग्गो—इसी घर में भैया रहते थे, बेटी। आज पन्द्रह रोज से घर सूना पड़ा हुआ है। मुँह हाथ धो कर दही– चीनी खा लो न, बेटी, भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम होगा।

जालपा—सब मालूम हो गया है माँ जी। इन्होंने सब बता दिया है। वे सरकारी गवाह बन गये हैं।

जग्गो—न जाने सबों ने कौन– सी बूटी सुँघा दी भैया तो ऐसे न थे। दिन भर अम्माँ– अम्माँ करते रहते थे। दुकान पर सभी तरह के लोग आते थे। मर्द भी औरत भी। क्या मजाल कि किसी की ओर आँख उठा कर देखा हो!

देवीदीन—कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा था। किसी धोखे में आ गये। बहू ने बताया, परागराज में उन पर कोई मुकदमा नहीं था वे इसी धोखे में पड़े रहे। जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते?

जालपा—क्या उनका बयान हो गया?

देवीदीन—हाँ तीन दिन बराबर होता रहा। आज खत्म हो गया। (साँस ले कर) पंद्रह बेगुनाह फँस गये। पाँच– छह को तो फाँसी हो जायगी, औरों को दस– दस, बारह– बारह साल की सजा मिली रखी है। इनके बयान से मुकदमा सबूत हो गया।

जालपा—(उद्विग्न हो कर) तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूँ?

देवीदीन—(मुस्करा कर) हाँ और क्या! जा कर भंडाफोड़ कर दो, सारा खेल बिगाड़ दो। पर पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं मिल पाता। कड़ा पहरा रहता है।

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