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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


(क्षणिक सन्नाटा। जालपा कुछ सोच में पड़ जाती है फिर एकदम पूछती है)

जालपा—क्यों दादा! उनके पास कोई खत भी नहीं पहुँच सकता? पहरेवालों को दस– पांच रुपये देने से तो शायद खत पहुँच जाय।

देवीदीन—मुश्किल है। पहरे पर बड़े जाँचे हुए आदमी रखे गये हैं। मैं दो बार गया था। सबों ने फाटक के सामने खड़ा भी न होने दिया।

जालपा—उस बँगले के आसपास क्या है?

देवीदीन—एक ओर तो एक बँगला है, दूसरी ओर एक कलमी आम का बाग है और सामने सड़क है।

जालपा—वह शाम को घूमने– घामने तो निकलते ही होंगे!

देवीदीन—हाँ, बाहर कुर्सी डाल कर बैठते हैं। पुलिस के दो एक अफसर भी साथ रहते हैं।

जालपा—अगर कोई उस बाग में छिप कर बैठे, तो कैसा हो। जब उन्हें अकेले देखे, खत फेंक दे। वह उठा लेंगे।

देवीदीन—(चकित हो कर) हाँ, हो तो सकता है; लेकिन अकेले मिलें तब तो!

जालपा—दादा! तुम मुझे वहाँ ले चलना। आगे मैं देख लूँगी।

देवीदीन—अच्छा बेटी! मैं अभी जा कर देखता हूँ। तुम तब तक खाओ– पियो। भइया को बुला कर खिलाओ– पिलाओ। जिस चीज की जरूरत हो हमसे कह देना। तुम्हारा ही घर है। भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है?

जग्गो—(गर्व से) वह तो हमारे हाथ का बनाया खा लेते थे। गरूर तो छू नहीं गया था।

जालपा—(मुस्करा कर) अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा मां जी, मैं बना दिया करूँगी।

जग्गो—न बहू, मैं नहीं खाऊँगी।

जालपा—(चकित) क्यों माँ जी?

जग्गो—हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है, बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्यों बनूँ?

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