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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


जालपा—हमारी बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है।

जग्गो—तुम्हें यहाँ कौन देखने आता है! फिर पढ़े– लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा—यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊँ। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया?

देवीदीन—(प्रशंसा से) बहू ने बात पते की कह दी। इसका जवाब सोच कर देना। अभी इन लोगों को जरा आराम करने दो।

(दोनों जाते हैं। जालपा चुपचाप बैठी हुई विचार मग्न हो जाती है)

जालपा—(स्वगत) समस्या जटिल है। उन्हें कैसे दलदल से निकालूँ? ऐसा न हुआ तो वह सबकी आँखों में गिर जायँगे। किसी को मुँह न दिखा सकेंगे। फिर बेगुनहों का खून गर्दन पर होगा। उनमें न जाने कौन अपराधी है, कौन निरपराध है, कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ के; सभी सजा पा जायँगे! शायद दो– चार को फांसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पड़ेगी?

(यह विचार मन में आते ही वह काँप उठती है। मुख पीला पड़ जाता है। कई क्षण मौन रहती है, फिर फुसफुसा उठती है)

कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं, लेकिन क्या अपने स्वार्थ के लिए कोई इतना गिरता है? ओह! कितनी बड़ी नीचता है! यह कैसे इस बात पर राजी हुए! अगर म्यूनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो– चार साल की कैद के सिवा और क्या होता? उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आये! (उसका मुँह तमतमा उठता है। कई क्षण वह मौन रहती है, आँसू गालों पर बहते रहते हैं।) उन्हें मालूम नहीं। अगर मालूम हो जाय कि म्यूनिसिपैलिटी उनका कुछ नहीं कर सकती तो शायद वह खुद ही अपना बयान बदल दें। खत में मैं यही सब लिखूँगी, सब बता दूँगी।

(देवीदीन का प्रवेश)

देवीदीन—बहू भैया तो सुनते हैं पंद्रह– बीस दिन में आयेंगे, तब हाईकोर्ट में मुकदमा पेश होगा।

जालपा—कहाँ गये हैं?

देवीदीन—वहीं मौका देखने गये हैं जहां वारदात हुई थी।

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