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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा। ठीक मालूम है पंद्रह– बीस दिन में आयेंगे?
देवीदीन—हां, पहरे वाले कह रहे थे। वहाँ मेरा एक पहचान का आदमी है। उसने बाग ले रखा है। उससे कह आया हूँ कि जब वह आ जायँ तो हमें खबर दे दे।
(जालपा कुछ जवाब नहीं देती, शून्य में ताकती रहती है। देवीदीन उसे देखता है।)
घबराओ नहीं बहू। सब कुछ ठीक होगा। मैं रोज टोह लेता रहूँगा।
(जाता है। जालपा फिर भी नहीं उठती। उसी तरह बैठी रहती है मानो गम्भीर मंत्रणा में लगी है, परदा गिरने लगता है)
जालपा—(स्वगत) उन्हें दलदल से निकालना होगा। चाहे वे मुझे दुत्कार दें, ठुकरा ही क्यों न दें, मैं उन्हें अपयश के अँधेरे में खड्ड में न गिरने दूँगी।
(उसके मुख पर एक प्रकाश उभरता है। वह गर्व से ऊपर देखती है, परदा गिरता है)
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