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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


‘मुझे चाहिए’ –बाकर ने दृढ़ता से कहा।

नन्दू ने उपेक्षा से सिर हिलाया। इस मजदूर की यह बिसात कि ऐसी सुन्दर साँडनी मोल ले, बोला–तू कि लेसी?

बाकर की जेब में पड़े हुए डेढ़ सौ के नोट जैसे बाहर उछल पड़ने को व्यग्र हो उठे, तनिक जोश के साथ उसने कहा–तुम्हें इससे क्या, कोई ले, तुम्हें अपनी कीमत से गरज है, तुम मोल बताओ?

नन्दू ने उसके जीर्ण-शीर्ण कपड़ों, घुटनों से उठे हुए तहमद और जैसे नूह के वक्त से भी पुराने जूते को देखते हुए टालने की गरज सा कहाँ–जा-जा तू इसी-विशी ले आई, इंगों मोल तो आठ बीसी सूँ आट के नाहीं*। (*जा-जा तू कोई ऐसी–वैसी साँड खरीद ले। इसका मूल्य तो १६० रु. से कम नहीं।)

एक निमिष के लिए बाकर के थके हुए, व्यथित चेहरे पर आह्लाद रेखा-सी झलक उठी। उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मूल्य न बता दे, जो उसके हिसाब से बाहर हो, पर जब अपनी जबान से उसने १६० रु. बताये, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। १५० रु. तो उसके पास थे ही। यदि इतने पर भी चौधरी न माना, तो दस रुपये वह उधार कर लेगा। भावताव तो उसे करना न आता था, झट से उसने डेढ़ सौ के नोट निकाले और नन्दू के आगे फेंक दिये, बोला–गिन लो, इनसे अधिक मेरे पास नहीं, अब आगे तुम्हारी मर्जी।

नन्दू ने अन्यमनस्कता से नोट गिनने आरम्भ कर दिये, पर गिनती खत्म करते ही उसकी आँखें चमक उठीं। उसने तो बाकर को टालने के लिए ही मूल्य १६०) बता दिया था। नहीं मंडी में अच्छी-से-अच्छी डाची भी डेढ़ सौ में मिल जाती और इसके तो १४०) पाने की भी उसने स्वप्न तक में कल्पना न की थी। पर शीघ्र ही मन के भावों को मन ही में छिपा कर और जैसे बाकर पर अहसान का बोझ लादते हुए नन्दू बोला-साँड तो मेरी दो सौ की है, पण जा सागी मोल मियाँ तन्ने दस छाड़ियाँ।* (*साँडनी तो मेरी २०० की है, पर जा सारी कीमत में से तुम्हें दस रुपये छोड़ दिये।) और यह कहते-कहते उठकर उसने साँडनी की रस्सी बाकर के हाथ में दे दी।

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