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कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
क्षण भर के लिए उस कठोर व्यक्ति का जी भर आया। यह साँडनी उसके यहाँ ही पैदा हुई और पली थी, आज पाल-पोस कर उसे दूसरे के हाथ में सौंपते हुए उसके मन की कुछ ऐसी ही हालत हुई, जो लड़की को ससुराल भेजते समय पिता की होती है। जरा काँपती आवाज में, स्वर को तनिक नर्म करते हुए, उसने कहा –आ साँड सोरी रहेड़ी है, तूँ इन्हें रहेड़ में ईन गेर देई।’* (*साँडनी अच्छी तरह रक्खी गई है, तू इसे यों ही मिट्टी में न रोल देना।) ऐसे ही, जैसे स्वसुर दामाद से कह रहा है–मेरी लड़की लाड़ो पली है, देखना इसे कष्ट न होने देना।
आह्लाद के परों पर उड़ते हुए बाकर ने कहा–तुम जरा भी चिन्ता न करो, जान देकर पालूँगा।
नन्दू ने नोट अंटी में संभालते हुए जैसे सूखे हुए गले को जरा तर करने के लिए घड़े में से मिट्टी का प्याला भरा–मंडी में चारों ओर धूल उड़ रही थी। शहरों की माल-मंडियों में भी–जहाँ बीसियों अस्थाई नलके लग जाते हैं और सारा-सारा दिन छिड़काव होता रहता है–धूल की कमी नहीं होती, फिर रेगिस्तान की मंडी पर तो धूल का ही साम्राज्य था। गन्नेवाले की गड़ेरियों पर, हलवाई के हलवे और जलेबियों पर, खोंचेवाले के दही-पकौड़ी पर, सब जगह धूल का पूर्णाधिकार था। यहाँ वह सर्वव्यापक थी, सर्वशक्ति मान थी, घड़े का पानी टाँचियों द्वारा नहर से लाया गया था, पर यहाँ आते-आते कीचड़ हो गया था। नन्दू का ख्याल था कि निथरने पर पियेगा; पर गला कुछ सूख रहा था। एक ही घूँट में प्याले को खत्म करके नन्दू ने बाकर से भी पानी पीने के लिए कहा, पर अब उसे पानी पीने की फुर्सत कहाँ? वह रात होने से पहले-पहले गाँव पहुँचना चाहता था। डाची की रस्सी पकड़े हुए वह धूल को जैसे चीरता हुआ चल पड़ा।
बाकर के दिल में बड़ी देर से एक सुन्दर और युवा डाची खरीदने की लालसा थी। जाति से वह कमीन था। उसके पूर्वज कुम्हारों का काम करते थे, किन्तु उसके पिता ने अपना पैतृक काम छोड़कर मजदूरी करना ही शुरू कर दिया था और उसके बाद बाकर भी इसी से अपना और अपने छोटे से कुटुम्ब का पेट पालता आता था। वह काम अधिक करता हो, यह बात न थी। काम से उसने सदैव जी चुराया था, और चुराता भी क्यों न, जबकि उसकी पत्नी उससे दुगुना काम करके उसके भार को बाँटने और आराम पहुँचाने के लिए मौजूद थी। कुटुम्ब बड़ा नहीं था–एक वह, एक उसकी पत्नी और एक नन्हीं सी बच्ची, फिर किसलिए वह जी हलाकान करता? पर क्रूर और बेपीर विधाता–उसने उसे विस्मृति से, सुख की उस नींद से जगाकर अपना उत्तरदायित्व महसूस करने पर बाधित कर दिया, उसे बता दिया कि जीवन में सुख भी है, परिश्रम भी है।
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