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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


बाकर ने फीकी हँसी के साथ कहा – हजूर अभी तो मेरा चाव भी पूरा नहीं हुआ।

मशीर माल उठकर डाची की गर्दन पर हाथ फेरने लगे- वाह क्या असली जानवर है? बोले –चलो पाँच और ले लेना।

और उन्होंने आवाज दी – नूरे, अरे ओ नूरे!

नौकर नौहरे में बैठा भैंसों के लिए पट्टे कतर रहा था। गँडासा हाथ में लिये ही भागा आया। मशीर माल ने कहा –यह डाची ले जाकर बाँध दो! एक सौ पैसठ रुपये में, कहो कैसी हैं?

नूरे हतबुद्वि से खड़े बाकर के हाथ से रस्सी ले ली नख से शिख तक एक नजर डाची पर डाल कर बोला –खूब जानवर है। और यह कहकर नौहरे की ओर चल पड़ा।

तब मशीर माल ने अंटी से साठ रुपये के नोट निकाल कर बाकर के हाथ में देते हुए मुसकराकर कहा –अभी –एक ग्राहक देकर गया है, शायद तुम्हारी ही किस्मत के थे। अभी यह रखो बाकी भी एक-दो महीनों तक पहुँचा देंगे। हो सकता है तुम्हारी किस्मत से पहले ही आ जाएँ। और बिना कोई जबाव सुने वे नौहरे की ओर चल पड़े। नूरा फिर चारा कतरने लगा था। दूर से आवाज देकर उन्होंने कहा -‘भैंसे का चारा रहने दो, पहले डाची के लिए गबारे का नीरा कर डालो। भूखी मालूम होती है।’

और पास जाकर साँडनी की गर्दन सहलाने लगे।

कृष्ण पक्ष का चाँद अभी उदय नहीं हुआ था। विजन में चारों ओर कोहासा-सा छा रहा था। सिर पर दो-एक तारे निकल आये थे और दूर बबूल और ओंकाद के वृक्ष बड़े-बड़े काले सियाह धब्बे बना रहे थे। अपनी काट से जरा दूर फोग की एक झाड़ी के नीचे बाकर बैठा था, पशुओं के गले में बँधी हुई घंटियों की आवाज जैसे अनवरत क्रन्दन बनकर उसके कानों में आ रही थी। बाकर के हाथ में साठ रुपये के नोट बेपरवाही से लटक रहे थे और झोंपड़ी से आनेवाली प्रकाश की क्षीण रेखा को निर्मिमेष देखता हुआ वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह रेखा बुझ जाये, रजिया सो जाए, तो वह चुपचाप अपने घर में दाखिल हो।

।। समाप्त ।।

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