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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


अपनी मुलाजमत के दिनों में मशीर माल महोदय ने काफी धन उपार्जन किया था। जब इधर नहर निकली, तो उन्होंने अपने असर और रसूख से रियासत की जमीन ही में कौड़ियों के मोल कई मुरब्बे जमीन ले ली थी।

अब रिटायर होकर यहीं आ रहे थे। राहक (मुजरे) रक्खे हुए थे, आय खूब थी और मजे से बसर हो रही थी। अपनी चौपाल में एक तख्तपोश पर बैठे वे हुक्का पी रहे थे–सिर पर सफेद साफा, गले में सफेद कमीज, उस पर सफेद जाकेट और कमर में दूध जैसे रंग का तहमद। गर्द से अटे हुए बाकर को साँडनी की रस्सी पकड़े आते देखकर उन्होंने पूछा–कहो बाकर किधर से आ रहे हो?

बाकर ने झुक कर सलाम करते हुए कहा –मंडी से आ रहा हूँ, मालिक।

‘यह डाची किसकी है?’

‘मेरी है मालिक, अभी मंडी से ला रहा हूँ।’

‘कितने की लाये हो।’

बाकर ने चाहा, कह दे आठ बीसी को लाया हूँ, उसके ख्याल में ऐसी सुन्दर डाची, दो सौ की भी सस्ती थी, पर मन न माना, बोला–हजूर माँगता तो एक सौ साठ था पर सात बीसी में ले आया हूँ।

मशीर माल ने एक नजर डाची पर डाली। वे खुद देर से एक सुन्दर सी डाची अपनी सवारी के लिए लेना चाहते थे। उनके डाची थी तो पर पिछले वर्ष उसे सीमक हो गया था, और यद्यपि नील इत्यादि देने से उसका रोग तो दूर हो गया था, पर उसकी चाल में वह मस्ती, वह लचक न रही थी। डाची उनकी नजरों में बस गई–क्या सुन्दर सुडौल अंग है, क्या सफेदी मायल भूरा-भूरा रंग है, क्या लचलचाती लम्बी गर्दन हैं। बोले –चले हमसे आठ बीसी ले लो, हमें डाची की जरूरत है। दस तुम्हारी मेहनत के रहे।

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