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गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


धनिया बोली–महाराज, उसके कसम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी कसम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास।

अब गोबर बोला–खा ले झूठी कसम। बंस का अन्त हो जाय। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!

रूपा एक क्षण में आकर बोली–काका घर में नहीं है, पण्डित दादा! काकी कहती हैं, कहीं चले गये हैं।

दातादीन ने लम्बी दाढ़ी फटकारकर कहा–तूने पूछा नहीं, कहाँ चले गये? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा है।

धनिया ने टोका–उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे। दातादीन ने खुद लकड़ी सँभाली और खबर लाये कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है लुटिया-डोर और डंडा सब लेकर गये हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो; पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया।

धनिया शीतल हृदय से बोली–मुँह में कालिख लगाकर कहीं भागा होगा।

शोभा बोला–भाग के कहाँ जायगा। गंगा नहाने न चला गया हो। धनिया ने शंका की–गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?  
इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गयी।

आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिये।

जो कुछ कसर रह गयी थी वह सन्ध्या-समय हलके के थानेदार ने आकर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्तव्य था। और थानेदार साहब भला अपने कर्तव्य से कब चूकनेवाले थे। अब गाँववालों को भी उनकी सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मँगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे और दारोगाजी के सामने हाथ बाँधकर खड़े हो गये। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायेगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गये। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे। यकीन हो गया, आज अच्छे का मुँह देखकर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफी है।

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