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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


रग्घू ने कुछ जवाब न दिया–उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर पर आ पड़ी। अब अगर उसने बहुत तथ्योंथंभो किया, तो साल छः महीने और काम चलेगा। बस, आगे यह डोंगा चलता नज़र नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी।

एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसात शुरू हो गई थी। बखार में अनाज गीला हो रहा था। पन्ना मुलिया से बोली–बहू, ज़रा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ।

मुलिया ने लापरवाही से कहा–मुझे नींद आ रही है, तुम बैठ कर देखो, एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा?

पन्ना ने साड़ी उठा कर रख दी, नहाने न गई। मुलिया का वार खाली गया।

कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोप कर लौटी, अँधेरा हो गया था। दिन भर की भूखी थी, आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी; मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ते से पूछा–आज अभी चूल्हा नहीं जला?

केदार ने कहा–आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी। भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना–तो तुम लोगों ने खाया क्या?

केदार–कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना–और बहू?

केदार–वह तो पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूँधती थी और रोती थी। क्या नसीब है, दिन भर खेत में जली, घर आई तो चूल्हे के सामने जलना पड़ा।

केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला–काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।

पन्ना ने चौंक कर पूछा–क्या, कुछ कहती थी?

केदार–कहती कुछ नहीं थी; मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है।

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