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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


पन्ना ने दाँतों से जीभ दबा कर कहा–चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूल कर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे, तो समझ लेना जहर खा लूँगी।

दशहरे का त्योहार आया। इस गाँव से कोस-भर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई; मगर पैसे कहाँ से आयें? कुंजी तो मुलिया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुलिया से कहा–लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो आने पैसे दे दो।

मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ा कर कहा–पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू–अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये?

मुलिया–हाँ, उठ गये।

रग्घू–कहाँ उठ गये? जरा सुनूँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायँगे।

मुलिया–अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़ कर क्या करेंगी।

खूँटी पर कुंजी लटक रही थी। रग्घू ने कुंजी उतारी और चाहा कि खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली–कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिये नहीं है कि दूसरे खायँ और मूँछों पर ताव दें।

पन्ना ने रग्घू से कहा–भइया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायँगे।

रग्घू ने झिड़ककर कहा–मेला देखने क्यों न जायँगे? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायँगे?

यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकाल कर लड़कों को दे दिये; मगर कुंजी जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुँह लपेट कर लोट गयी। लड़के मेला देखने न गये।

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