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कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग़ रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छः फुट का क़द, गठा हुआ बदन, ललकारकर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मज़ा लेते। गाने-बजाने का आशिक़, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज़ का शग़ल था। निडर ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे सन्देह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह काँपने लगती थी। अगरचे साठे के एक हिम्मती सूरमा के लिए यह बेमतलब डर असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक क़ायम थी। आज उसके दरवाज़े पर लाल पगड़ीवालों की एक फ़ौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अँधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोग़ा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फ़रियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी का रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं क़साई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाज़ारी थी। दारोग़ा जी निहायत कारगुज़ार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफ़ा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फ़रियाद की—हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोग़ाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस ग़रीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी थी। कानिस्टिबिल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो दारोग़ा जी ने अफसरी शान से फरमाया—मौज़े में ऐसी संगीन वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेद की तरह काँपते हुए बोले—हुजूर, अब माफी दी जाय। दारोग़ा जी ने ग़जबनाक निगाहों से उसकी तरफ़ देखकर कहा—यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदमाश को इसका मज़ा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
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