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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा—हुजूर, अब माफ़ी दी जाय।

दारोग़ा जी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुँझलाकर बोले—अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज़्यादा फुरसत नहीं है। मैं नमाज़ पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह-मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुख़सत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही माँगता!

दारोग़ा तक़वे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!

मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास आए और बोले—यह दारोग़ा बड़ा काफ़िर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, ग़रीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।

गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा—दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रुपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।

गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गाँठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश में उठ बैठा और बोला—पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?

मुखिया का चेहरा फ़क़ हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले—धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।

लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला—मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फाँसी लगा देता है।

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