कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
एक रोज मैं प्रेतों की दुनिया से निकलकर घूमता हुआ अजमेर की पब्लिक लाइब्रेरी में जा पहुँचा। दोपहर का वक़्त था। मैंने मेज़ पर झुककर देखा कि कोई नयी रचना हाथ आ जाये तो दिल बहलाऊँ। यकायक मेरी निगाह एक सुंदर पत्र की ओर गयी जिसका नाम था ‘कलामें अख़्तर’। जैसे भोला बच्चा खिलौने की तरफ़ लपकता है उसी तरह झपटकर मैंने उस किताब को उठा लिया। उसकी लेखिका मिस आयशा आरिफ़ थीं। दिलचस्पी और भी ज़्यादा हुई। मैं इत्मीनान से बैठकर उस किताब को पढ़ने लगा। एक ही पन्ना पढ़ने के बाद दिलचस्पी ने बेताबी की सूरत अख़्तियार की। फिर तो मैं बेसुधी की दुनिया में पहुँच गया। मेरे सामने गोया सूक्ष्म अर्थों की एक नदी लहरें मार रही थी। कल्पना की उठान, रुचि की स्वच्छता, भाषा की नर्मी। काव्य-दृष्टि की व्यापकता, किस-किस की तारीफ करूँ। उसकी एक-एक कल्पना ऐसी थी कि हृदय धन्य-धन्य कह उठता था। मैं एक पैराग्राफ पढ़ता, फिर विचार की ताज़गी से प्रभावित होकर एक लंबी साँस लेता और तब सोचने लगता, इस किताब को सरसरी तौर पर पढ़ना असम्भव था। यह औरत थी या सुरुचि की देवी। उसके इशारों से मेरा कलाम बहुत कम बचा था मगर जहाँ उसने मुझे दाद दी थी वहाँ सच्चाई के मोती बरसा दिये थे। उसके एतराजों में हमदर्दी और प्रशंसा में भक्ति थी। शायर के कलाम को दोषों की दृष्टि से नहीं, खूबियों की दृष्टि से देखना चाहिये। उसने क्या नहीं किया, यह ठीक कसौटी नहीं। बस यही जी चाहता था कि लेखिका के हाथ और क़लम चूम लूँ। ‘सफ़ीर’ भोपाल के दफ़्तर से यह पत्रिका प्रकाशित हुई थी। मेरा पक्का इरादा हो गया, तीसरे दिन शाम के वक़्त मैं मिस आयशा के ख़ूबसूरत बंगले के सामने हरी-हरी घास पर टहल रहा था। मैं नौकरानी के साथ एक कमरे में दाख़िल हुआ। उसकी सजावट बहुत सादी थी। पहली चीज़ जिस पर मेरी निगाह पड़ी वह मेरी तस्वीर थी जो दीवार से लटक रही थी। सामने एक आइना रखा हुआ था। मैंने खुदा जाने क्यों उसमें अपनी सूरत देखी। मेरा चेहरा पीला और कुम्हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ों पर गर्द की एक मोटी तह जमी हुई, परेशानी की ज़िंदा तस्वीर खड़ी थी।
उस वक़्त मुझे अपनी बुरी शक्ल पर सख़्त शर्मिंदगी हुई। मैं सुंदर न सही मगर इस वक़्त तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रही थी। अपने लिबास के ठीक होने का यकीन हमें खुशी देता है। अपने फूहड़पन का जिस्म पर इतना असर नहीं होता जितना दिल पर। हम बुज़दिल और बेहौसला हो जाते हैं।
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