कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
जब मैं खाना खाकर पलंग पर लेटा तो बावजूद दो दिन रात-रात-भर जागने के नींद आँखों से कोसों दूर थी। जज़्बात की कशमकश में नींद कहाँ। आयशा की सूरत, उसकी खातिरदारियाँ और उसकी वह छिपी-छिपी निगाह दिल में एहसासों का तूफ़ान-सा बरपा रही थी उस आख़िरी निगाह ने दिल में तमन्नाओं की रुम-धूम मचा दी। वह आरजुएँ जो, बहुत अरसा हुआ, मर मिटी थीं फिर जाग उठीं और आरजुओं के साथ कल्पना ने भी मुंदी हुई आँखें खोल दीं।
दिल में जज़्बात और कैफ़ियात का एक बेचैन करनेवाला जोश महसूस हुआ। यही आरजुएँ, यही बेचैनियाँ और यही शोरिशें कल्पना के दीपक के लिए तेल हैं। जज़्बात की हरारत ने कल्पना को गरमाया। मैं क़लम लेकर बैठ गया और एक ऐसी नज़्म लिखी जिसे मैं अपनी सबसे शानदार दौलत समझता हूँ।
मैं एक होटल में रह रहा था, मगर किसी-न-किसी हीले से दिन में कम-से-कम एक बार जरूर उसके दर्शन का आनंद उठाता। गो आयशा ने कभी मेरे यहाँ तक आने की तकलीफ़ नहीं की तो भी मुझे यह यकीन करने के लिए शहादतों की ज़रूरत न थी कि वहाँ किस क़दर सरगर्मी से मेरा इंतज़ार किया जाता था, मेरे क़दमों की पहचानी हुई आहट पाते ही उसका चेहरा कैसे कमल की तरह खिल जाता था और आँखों से कामना की किरणें निकलने लगती थीं।
यहाँ छः महीने गुज़र गये। इस ज़माने को मेरी ज़िन्दगी की बहार समझना चाहिये। मुझे वह दिन भी याद है जब मैं आरजुओं और हसरतों के ग़म से आज़ाद था। मगर दरिया की शांतिपूर्ण रवानी में थिरकती हुई लहरों की बहार कहाँ, अब अगर मुहब्बत का दर्द था तो उसका प्राणदायी मज़ा भी था। अगर आरजु़ओं की घुलावट थी तो उनकी उमंग भी थी। आह, मेरी यह प्यासी आँखें उस रुप के स्रोत से किसी तरह तृप्त न होंती। जब मैं अपनी नशें में डूबी हुई आँखों से उसे देखता तो मुझे एक आत्मिक तरावट-सी महसूस होती। मैं उसके दीदार के नशे से बेसुध-सा हो जाता और मेरी रचना-शक्ति का तो कुछ हद-हिसाब न था। ऐसा मालूम होता था कि जैसे दिल में मीठे भावों का सोता खुल गया था। अपनी कवित्व शक्ति पर खुद अचम्भा होता था। क़लम हाथ में ली और रचना का सोता-सा बह निकला। ‘नैरंग’ में ऊँची कल्पनाएँ न हों, बड़ी गूढ़ बातें न हों, मगर उसका एक-एक शेर प्रवाह और रस, गर्मी और घुलावट की दाद दे रहा है। यह उस दीपक का वरदान है, जो अब मेरे दिल में जल गया था और रोशनी दे रहा था। यह उस फूल की महक थी जो मेरे दिल में खिला हुआ था। मुहब्बत रुह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को ज़िंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊँची, मुबारक बरक़त है। यही अक्सीर थी जिसकी अनजाने ही मुझे तलाश थी। वह रात कभी नहीं भूलेगी जब आयशा दुल्हन बनी हुई मेरे घर में आयी। ‘नैरंग’ उसी मुबारक ज़िन्दगी की यादगार है। ‘दुनियाए हुस्न’ एक कली थी, ‘नैरंग’ खिला हुआ फूल है और उस कली को खिलाने वाली कौन-सी चीज़ है? वही जिसकी मुझे अनजाने ही तलाश थी और जिसे मैं अब पा गया था।
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