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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


फूलमती ने चादर से सर को ढाँकते हुए कहा—तुम न आ जाते तो वह मुझे नोच डालता। मेरे तो जैसे मन-मन भर के पैर हो गये थे। मेरा कलेजा तो अभी तक धड़क रहा है।

यह तीर लक्ष्य पर बैठा, खामोशी की मुहर टूट गयी, बातचीत का सिलसिला क़ायम हुआ। बाँध में एक दरार हो जाने की देर थी, फिर तो मन की उमंगों ने खुद-ब-खुद काम करना शुरु किया। मैंने जैसे-जैसे जाल फैलाये, जैसे-जैसे स्वांग रचे, वह रंगीन तबियत के लोग ख़ूब जानते हैं। और यह सब क्यों? मुहब्बत से नहीं, सिर्फ़ जरा देर दिल को खुश करने के लिए, सिर्फ़ उसके भरे-पूरे शरीर और भोलेपन पर रीझकर। यों तो मैं बहुत नीच प्रकृति का आदमी नहीं हूँ। रूप-रंग में फूलमती का इंदु से मुक़ाबला न था। वह सुंदरता के सांचे में ढली हुई थी। कवियों ने सौंदर्य की जो कसौटियाँ बनायी हैं वह सब वहाँ दिखायी देती थीं लेकिन पता नहीं क्यों मैंने फूलमती की धंसी हुई आँखों और फूले हुए गालों और मोटे-मोटे होठों की तरफ़ अपने दिल का ज़्यादा खिंचाव देखा। आना-जाना बढ़ा और महीना-भर भी गुज़रने न पाया कि मैं उसकी मुहब्बत के जाल में पूरी तरह फंस गया। मुझे अब घर की सादी ज़िन्दगी में कोई आनन्द न आता था। लेकिन दिल ज्यों-ज्यों घर से उचटता जाता था त्यों-त्यों मैं पत्नी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन और भी अधिक करता था। मैं उसकी फ़रमाइशों का इंतज़ार करता रहता और कभी उसका दिल दुखानेवाली कोई बात मेरी ज़बान पर न आती। शायद मैं अपनी आंतरिक उदासीनता को शिष्टाचार के पर्दे के पीछे छिपाना चाहता था।

धीरे-धीरे दिल की यह कैफ़ियत भी बदल गयी और बीवी की तरफ़ से उदासीनता दिखायी देने लगी। घर में कपड़े नहीं हैं लेकिन मुझसे इतना न होता कि पूछ लूँ। सच यह है कि मुझे अब उसकी ख़ातिरदारी करते हुए एक डर-सा मालूम होता था कि कहीं उसकी खामोशी की दीवार टूट न जाय और उसके मन के भाव ज़बान पर न आ जायँ। यहाँ तक कि मैंने गिरस्ती की जरूरतों की तरफ़ से भी आँखे बंद कर लीं। अब मेरा दिल और जान और रुपया-पैसा सब फूलमती के लिए था। मैं खुद कभी सुनार की दुकान पर न गया था लेकिन आजकल कोई मुझे पहर रात गए एक मशहूर सुनार के मकान पर बैठा हुआ देख सकता था। बज़ाज़ की दुकान में भी मुझे रुचि हो गयी।

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