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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


महाराज ने गुस्से में कहा—या तो तू चोरी करता है या डाका मारता है वर्ना यह कभी नहीं हो सकता कि तेरी लड़की अमीरज़ादी बनकर रह सके। तुझे इसी वक़्त इसका ज़वाब देना होगा वर्ना मैं तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूँगा। ऐसे चाल-चलन के आदमी को मैं अपने यहाँ नहीं रख सकता।

माली की तो घिग्घी बंध गयी और मेरी यह हालत थी कि काटो तो बदन में लहू नहीं। दुनिया अँधेरी मालूम होती थी। मैं समझ गया कि आज मेरी शामत सर पर सवार है। वह मुझे जड़ से उखाड़कर दम लेगी। महाराजा साहब ने माली को जोर से डाँटकर पूछा—तू खामोश क्यों है, बोलता क्यों नहीं?

दुर्जन फूट-फूटकर रोने लगा। जब ज़रा आवाज़ सुधरी तो बोला—हुजूर, बाप-दादे से सरकार का नमक खाता हूँ, अब मेरे बुढ़ापे पर दया कीजिए, यह सब मेरे फूटे नसीबों का फेर है धर्मावतार। इस छोकरी ने मेरी नाक कटा दी, कुल का नाम मिटा दिया। अब मैं कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ, इसको सब तरह से समझा-बुझाकर हार गए हुजूर, लेकिन मेरी बात सुनती ही नहीं तो क्या करूँ। हुजूर माई-बाप हैं, आपसे क्या पर्दा करूँ, उसे अब अमीरों के साथ रहना अच्छा लगता है और आजकल के रईसों और अमींरों को क्या कहूँ, दीनबंधु सब जानते हैं।

महाराजा साहब ने ज़रा देर गौर करके पूछा—क्या उसका किसी सरकारी नौकर से संबंध है?

दुर्जन ने सर झुकाकर कहा—हुजूर।

महाराजा साहब—वह कौन आदमी है, तुम्हे उसे बतलाना होगा।

दुर्जन—महाराज जब पूछेंगे बता दूँगा, साँच को आँच क्या।

मैंने तो समझा था कि इसी वक़्त सारा पर्दाफास हुआ जाता है लेकिन महाराजा साहब ने अपने दरबार के किसी मुलाजिम की इज्ज़त को इस तरह मिट्टी में मिलाना ठीक नहीं समझा। वे वहाँ से टहलते हुए मोटर पर बैठकर महल की तरफ़ चले।

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