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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इस मनहूस वाक़ये के एक हफ़्ते बाद एक रोज़ मैं दरबार से लौटा तो मुझे अपने घर में से एक बूढ़ी औरत बाहर निकलती हुई दिखाई दी। उसे देखकर मैं ठिठका। उसे चेहरे पर बनावटी भोलापन था जो कुटनियों के चेहरे की ख़ास बात है। मैंने उसे डाँटकर पूछा—तू कौन है, यहाँ क्यों आयी है?

बुढ़िया ने दोनों हाथ उठाकर मेरी बलाएँ लीं और बोली—बेटा, नाराज़ न हो, ग़रीब भिखारी हूँ, मालकिन का सुहाग भरपूर रहे, उसे जैसा सुनती थी वैसा ही पाया। यह कह कर उसने जल्दी से क़दम उठाए और बाहर चली गई। मेरे गुस्से का पारा चढ़ा मैंने घर जाकर पूछा—यह कौन औरत आयी थी?

मेरी बीवी ने सर झुकाये धीरे से जवाब दिया—क्या जानूं, कोई भिखरिन थी।

मैंने कहा, भिखारिनों की सूरत ऐसी नहीं हुआ करती, यह तो मुझे कुटनी-सी नज़र आती है। साफ़-साफ़ बताओ उसके यहाँ आने का क्या मतलब था।

लेकिन बजाय इसके कि इन संदेहभरी बातों को सुनकर मेरी बीवी गर्व से सिर उठाये और मेरी तरफ उपेक्षा-भरी आँखों से देखकर अपनी साफ़दिली का सबूत दे, उसने सर झुकाए हुए जवाब दिया—मैं उसके पेट में थोड़े ही बैठी थी। भीख माँगने आयी थी भीख दे दी, किसी के दिल का हाल कोई क्या जाने!

उसके लहजे और अंदाज से पता चलता था कि वह जितना ज़बान से कहती है, उससे ज़्यादा उसके दिल में है। झूठा आरोप लगाने की कला में वह अभी बिलकुल कच्ची थी वर्ना तिरिया चरित्तर की थाह किसे मिलती है। मैं देख रहा था कि उसके हाथ-पाँव थरथरा रहे हैं। मैंने झपटकर उसका हाथ पकड़ा और उसके सिर को ऊपर उठाकर बड़े गंभीर क्रोध से बोला—इंदु, तुम जानती हो कि मुझे तुम्हारा कितना एतबार है लेकिन अगर तुमने इसी वक्त़ सारी घटना सच-सच न बता दी तो मैं नहीं कह सकता कि इसका नतीजा क्या होगा। तुम्हारा ढंग बतलाता है कि कुछ-न-कुछ दाल में काला ज़रूर है। यह ख़ूब समझ रखो कि मैं अपनी इज्ज़त को तुम्हारी और अपनी जानों से ज़्यादा अजीज़ समझता हूँ। मेरे लिए यह डूब मरने की जगह है कि मैं अपनी बीवी से इस तरह की बातें करूँ, उसकी ओर से मेरे दिल में संदेह पैदा हो। मुझे अब ज़्यादा सब्र की गुंजाइश नहीं है। बोलो क्या बात है?

इंदुमती मेरे पैरो पर गिर पड़ी और रोकर बोली—मेरा कसूर माफ़ कर दो।

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