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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैंने गरजकर कहा—वह कौन सा कसूर है?

इंदूमति ने सँभलकर जवाब दिया—तुम अपने दिल में इस वक़्त जो ख़्याल कर रहे हो उसे एक पल के लिए भी वहाँ न रहने दो, वर्ना समझ लो कि आज ही इस ज़िन्दगी का खात्मा है। मुझे नहीं मालूम था कि तुम मेरी तरफ से ऐसे ख़याल रखते हो। मेरा परमात्मा जानता है कि तुमने मेरे ऊपर जो जु़ल्म किए हैं उन्हें मैंने किस तरह झेला है और अब भी सब-कुछ झेलने के लिए तैयार हूँ। मेरा सर तुम्हारे पैरों पर है, जिस तरह रखोगे, रहूँगी। लेकिन आज मुझे मालूम हुआ कि तुम जैसे खुद हो वैसा ही दूसरों को समझते हो। मुझसे भूल अवश्य हुई है लेकिन उस भूल की यह सजा नहीं कि तुम मुझ पर ऐसे संदेह करो। मैंने उस औरत की बातों में आकर अपने घर का सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दिया। मैं समझती थी कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये लेकिन कुछ तो उस औरत की हमदर्दी और कुछ मेरे अंदर सुलगती हुई आग ने मुझसे यह भूल करवाई और इसके लिए तुम जो सज़ा दो वह मेरे सर-आँखों पर।

मेरा गुस्सा ज़रा धीमा हुआ। बोला—तुमने उससे क्या कहा?

इन्दुमती ने जवाब दिया—घर का जो कुछ हाल है, तुम्हारी बेवफ़ाई, तुम्हारी लापरवाही, तुम्हारा घर की ज़रूरतों की फ़िक्र न रखना। अपनी बेवकूफ़ी को क्या कहूँ, मैंने उसे यहाँ तक कह दिया कि इधर तीन महीने से उन्होंने घर के लिए कुछ खर्च भी नहीं दिया और इसकी चोट मेरे गहनों पर पड़ीं। तुम्हे शायद मालूम नहीं कि इन तीन महीनों में मेरे साढ़े चार सौ रुपये के ज़ेवर बिक गये। न मालूम क्यों मैं उससे यह सब कुछ कह गयी। जब इंसान का दिल जलता है तो ज़बान तक उसी आंच आ ही जाती है। मगर मुझसे जो कुछ ख़ता हुई उससे कई गुनी सख़्त सजा तुमने मुझे दी है; मेरा बयान लेने का भी सब्र न हुआ। खैर, तुम्हारे दिल की कैफ़ियत मुझे मालूम हो गई, तुम्हारा दिल मेरी तरफ़ से साफ़ नहीं है, तुम्हें मुझपर विश्वास नहीं रहा वर्ना एक भिखारिन औरत के घर से निकलने पर तुम्हें ऐसे शुबहे क्यों होते।

मैं सर पर हाथ रखकर बैठ गया। मालूम हो गया कि तबाही के सामान पूरे हुए जाते हैं।

दूसरे दिन मैं ज्यों ही दफ़्तर में पहुँचा चोबदार ने आकर कहा—महाराज साहब ने आपको याद किया है।

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