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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मुझे कुछ कहने का साहस न हुआ। मैंने बहुत धैर्यपूर्वक अपने क़िस्मत का यह फ़ैसला सुना और घर की तरफ़ चला। लेकिन दो ही चार क़दम चला था कि अचानक ख़याल आया किसके घर जा रहे हो, तुम्हारा घर अब कहाँ है! मैं उलटे क़दम लौटा। जिस घर का मैं राजा था वहाँ दूसरों का आश्रित बनकर मुझसे नहीं रहा जाएगा और रहा भी जाये तो मुझे रहना चाहिए। मेरा आचरण निश्चय ही अनुचित था लेकिन मेरी नैतिक संवेदना अभी इतनी थोथी न हुई थी। मैंने पक्का इरादा कर लिया कि इसी वक़्त इस शहर से भाग जाना मुनासिब है वर्ना बात फैलते ही हमदर्दों और बुरा चेतनेवालों का एक जमघट हालचाल पूछने के लिए आ जाएगा, दूसरों की सूखी हमदर्दियाँ सुननी पड़ेंगी जिनके पर्दे में खुशी झलकती होगी। एक बार सिर्फ़ एक बार, मुझे फूलमती का ख़याल आया। उसके कारण यह सब दुर्गत हो रही है, उससे तो मिल ही लूँ। मगर दिल ने रोका, क्या एक वैभवशाली आदमी की जो इज्ज़त होती थी वह अब मुझे हासिल हो सकती है? हरगिज़ नहीं। रूप की मण्डी में वफ़ा और मुहब्बत के मुक़ाबिले में रुपया-पैसा ज़्यादा क़ीमती चीज़ है। मुमकिन है इस वक़्त मुझ पर तरस खाकर या क्षणिक आवेश में आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये लेकिन उसे लेकर कहाँ जाऊँगा, पाँवों में बेड़ियाँ डालकर चलना तो और भी मुश्किल है। इस तरह सोच-विचार कर मैंने बम्बई की राह ली और अब दो साल से एक मिल में नौकर हूँ, तनख़्वाह सिर्फ़ इतनी है कि ज्यों-त्यों ज़िन्दगी का सिलसिला चलता रहे लेकिन ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ और इसी को यथेष्ट समझता हूँ। मैं एक बार गुप्त रूप से अपने घर गया था। फूलमती ने एक दूसरे रईस से रूप का सौदा कर लिया है, लेकिन मेरी पत्नी ने अपने प्रबन्ध-कौशल से घर की हालत ख़ूब सँभाल ली है। मैंने अपने मकान को रात के समय लालसा-भरी आँखों से देखा-दरवाज़े पर पर दो लालटेनें जल रही थीं और बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे, हर सफ़ाई और सुथरापन दिखायी देता था। मुझे कुछ अख़बारों के देखने से मालूम हुआ कि महीनों तक मेरे पते-निशान के बारे में अखबरों में इश्तहार छपते रहे। लेकिन अब यह सूरत लेकर मैं वहाँ क्या जाऊँगा और यह कालिख-लगा मुँह किसको दिखाऊँगा। अब तो मुझे इसी गिरी-पड़ी हालत में ज़िन्दगी के दिन काटने हैं, चाहे रोकर काटूं या हँसकर। मैं अपनी हरक़तों पर अब बहुत शर्मिंदा हूँ। अफ़सोस मैंने उन नेमतों की क़द्र न की, उन्हें लात से ठोकर मारी, यह उसी की सज़ा है कि आज मुझे यह दिन देखना पड़ रहा है। मैं वह परवाना हूँ। मैं वह परवाना हूँ जिसकी खाक़ भी हवा के झोंकों से न बची।

—ज़माना, सितम्बर-अक्तूबर, १९१४
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