लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रात के नौ बजे होंगे कि एक आदमी काला कम्बल ओढ़े एक बाँस का सोंटा लिये शाही खेमे से बाहर निकला और बस्ती की तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता चला। आज माहनगर भी खुशी से ऐंड़ रहा है। दरवाजों पर कई-कई बत्तियोंवाले चौमुखे दीवट जल रहे हैं। दरवाज़ों के सहन झाड़कर साफ कर दिये गये हैं। दो-एक जगह शहनाइयाँ बज रही हैं और कहीं-कहीं लोग भजन गा रहे हैं। काली कमलीवाला मुसाफिर इधर-उधर देखता-भालता गाँव के चौपाल में जा पहुँचा। चौपाल खूब सजा हुआ था और गाँव के बड़े लोग बैठे हुए इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर बहस कर रहे थे कि महाराजा रनजीतसिंह की सेवा में कौन-सी भेंट पेश की जाय। आज महाराज ने इस गाँव को अपने क़दमों से रोशन किया है, तो क्या इस गाँव के बसनेवाले महाराज के क़दमों को न चूमेंगे! ऐसे शुभ अवसर कहाँ आते हैं। सब लोग सर झुकाये चिन्तित बैठे थे। किसी की अक़ल कुछ काम न करती थी। वहाँ अनमोल जवाहरात की किश्तियाँ कहाँ? पूरे घंटे भर तक किसी ने सर न उठाया। यकायक बूढ़ा प्रेमसिंह खड़ा हो गया और बोला—अगर आप लोग पसन्द करें तो मैं विक्रमादित्य की तलवार नजराने के लिए दे सकता हूँ।

इतना सुनते ही सब के सब आदमी खुशी से उछल पड़े और एक हुल्लड़-सा मच गया। इतने में एक मुसाफिर काली कमली ओढ़े चौपाल के अन्दर आया और हाथ उठाकर बोला—भाइयो, वाह गुरु की जय!

चेतराम बोले—तुम कौन हो?

मुसाफिर—राहगीर हूँ, पेशावर जाना है। रात ज़्यादा आ गयी है इसलिए यहीं लेट रहूँगा।

टेकसिंह—हाँ-हाँ आराम से सोओ। चारपाई की ज़रूरत हो तो मँगा दूँ?

मुसाफिर—नहीं, आप तकलीफ़ न करें, मैं इसी टाट पर लेट रहूँगा। अभी आप लोग विक्रमादित्य की तलवार की कुछ बातचीत कर रहे थे। यही सुनकर चला आया। वर्ना बाहर ही पड़ा रहता। क्या यहाँ किसी के पास विक्रमादित्य की तलवार है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book