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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मुसाफिर की बातचीत से साफ़ जाहिर होता था कि वह कोई शरीफ़ आदमी है। उसकी आवाज़ में वह कशिश थी जो कानों को अपनी तरफ़ खींच लिया करती है। सब की आँखें उसकी तरफ़ उठ गयीं। पंडित चेतराम बोले—जी हाँ, कुछ अर्सा हुआ महाराज विक्रमादित्य का तेग़ा जमीन से निकला है।

मुसाफिर—यह क्योंकर मालूम हुआ कि यह तेग़ा उन्हीं का है?

चेतराम—उसकी मूठ पर उनका नाम खुदा है।

मुसाफिर—उनकी तलवार तो बहुत बड़ी होगी?

चेतराम—नहीं, वह तो एक छोटा-सा नीमचा है।

मुसाफिर—तो फिर उसमें कोई ख़ास गुण होगा।

चेतराम—जी हाँ, उसके गुण अनमोल हैं। देखकर अक्ल दंग रह जाती है। जहाँ रख दो; उसमें जलते चिराग़ की-सी रोशनी पैदा हो जाती है।

मुसाफिर—ओफ़्फ़ोह!

चेतराम—मगर ज्योंही कोई आदमी उसे हाथ में ले लेता है, उसकी सारी चमक-दमक गायब हो जाती है।

यह अजीब बात सुनकर उस मुसाफिर की वही कैफ़ियत हो गयी जो एक आश्चर्यजनक कहानी सुनने से बच्चों की हो जाया करती है। उसकी आँख और भंगिमा से अधीरता प्रकट होने लगी। जोश से बोला—विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है!

ज़रा देर के बाद फिर बोला—वह कौन बुजुर्ग हैं जिसके पास यह अनमोल चीज़ है?

प्रेमसिंह ने गर्व से कहा—मेरे पास है।

मुसाफिर—क्या मैं उसे देख सकता हूँ?

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