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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


प्रेमसिंह—हाँ, मैं आपको सवेरे दिखा दूँगा। मगर नहीं, ठहरिए, सवेरे तो हम उसे महाराज रनजीतसिंह को भेंट करेंगे, आपका जी चाहे तो इसी वक़्त देख लीजिए।

दोनों आदमी चौपाल से चल खड़े हुए। प्रेमसिंह ने मुसाफिर को अपने घर में ले जाकर तेग़े के पास खड़ा कर दिया। इस कमरे में चिराग़ न था मगर सारा कमरा रोशनी से जगमगा रहा था। मुसाफिर ने पुरजोश आवाज से कहा—विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है, इतना ज़माना गुजरने पर भी तुम्हारी तलवार का तेज़ कम नहीं हुआ।

यह कहकर उसने बड़े चाव से हाथ बढ़ाकर तेग़े को पकड़ लिया मगर उसका हाथ लगते ही तेग़े की चमक जाती रही और कमरे में अँधेरा छा गया।

मुसाफिर ने फौरन तेग़े को तख्त पर रख दिया। उसका चेहरा अब बहुत उदास हो गया था। उसने प्रेमसिंह से कहा—क्या तुम यह तेग़ा रनजीतसिंह को भेंट दोगे? वह इसे हाथ में लेने योग्य नहीं है।

यह कहकर मुसाफिर तेजी से बाहर निकल आया। वृन्दा दरवाजे पर खड़ी थी, मुसाफिर ने उसके चेहरे की तरफ़ एक बार गौर से देखा, मगर कुछ बोला नहीं।

रात आधी से ज़्यादा ग़ुजर चुकी थी। मगर फ़ौज में शोर-गुल बदस्तूर जारी थी। खुशी के हंगामे ने नींद को सिपाहियों की आँखों से दूर भगा दिया है। अगर कोई अँगड़ाई लेता या ऊँघता नजर आ जाता है तो उसके साथी उसे एक टाँग से खड़ा कर देते हैं। यकायक यह ख़बर मशहूर हुई कि महाराज इसी वक़्त कूच करेंगे। लोग ताज्जुब में आ गये कि महाराज ने क्यों इस अँधेरी रात में सफ़र करने की ठानी है। इस डर से कि फ़ौज को इसी वक़्त कूच करना पड़ेगा चारों तरफ़ खलबली-सी मच गयी। वह ख़ुद थोड़े से आजमाये हुए सरदारों के साथ रवाना हो गये। इसका कारण किसी की समझ में न आया।

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